Thursday, July 22, 2010
बेहतर जिंदगी जीने के लिए कुछ जरूरी लाइंस
जिंदगी कैसे जिये इसको लेकर बड़ी जद्दोजहद चलती रहती है, बिना कलुष के कुंठा के बेहतर जीवन जीने की आकांक्षा सबकी होती है मेरी भी, कई बार बेहद अच्छा और सार्थक जीवन जीने के चक्कर में जिंदगी का कबाड़ा भी बना लेता हूँ, लेकिन कहीं लिखी देखी इन लाइनों नें कुछ दिन का दाना पानी जिन्दगी को मुहैय्या करा दिया है,
बस इन लाइंस के लिए विंसेट वान गाग को दिल से शुक्रिया कहना चाहता हूँ...वो लाइंस आप भी पढ़िए और हो सके तो जीवन में उतार लीजिये...मजा आएगा...मुझे लगता है...
दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है, आदमी इस दुनिया में सिर्फ खुश होने नहीं आया है, वह ऐसे ही इमानदार बनने को भी नहीं आया है, वह पूरी मानवता के लिए महान चीजें बनाने के लिए आया है, वह उदारता प्राप्त करने को आया है, वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिसमे ज्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसट ता रहता है
(विंसेट वान गाग की जीवनी लस्ट फॉर लाइफ से ली पंक्तियाँ )
हृदयेंद्र
बस इन लाइंस के लिए विंसेट वान गाग को दिल से शुक्रिया कहना चाहता हूँ...वो लाइंस आप भी पढ़िए और हो सके तो जीवन में उतार लीजिये...मजा आएगा...मुझे लगता है...
दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है, आदमी इस दुनिया में सिर्फ खुश होने नहीं आया है, वह ऐसे ही इमानदार बनने को भी नहीं आया है, वह पूरी मानवता के लिए महान चीजें बनाने के लिए आया है, वह उदारता प्राप्त करने को आया है, वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिसमे ज्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसट ता रहता है
(विंसेट वान गाग की जीवनी लस्ट फॉर लाइफ से ली पंक्तियाँ )
हृदयेंद्र
Sunday, July 18, 2010
खतरे में हमारा मसीहा...
कभी पत्रकार बनने का सोचा भी नहीं था फिर भी एक ही पत्रकार को जनता था आलोक तोमर, दूसरों को बिन मांगी सलाह देता था की आलोक तोमर को कभी पढ़ा है, पता नहीं कितनो को उत्सुकता से अलोक सर के लिखे लेख पढ़ा दिए, पत्रकारिता में प्रभाष जी राम थे तो आलोक सर हनुमान थे हमारे लिए, भगवान् का दर्जा दोनों का है, इश्वर ने भी सुनी और एक दिन मेरे मसीहा से मुलाकात भी करा दी, दिल के तार कुछ यूँ जुड़े की बस उनका ही होकर रह गया, बहुतों को डर लगता हैं उनसे, अपन कभी डरे ही नहीं, बल्कि हर बार अधिकार से कही, इतना बड़ा पत्रकार, उतना बड़ा पत्रकार जैसी चीज कभी रही नहीं हमारे बीच, ये जानते हुए भी की मेरी उम्र के बराबर उनका अनुभव होगा, बस एक स्नेह की डोर जो हमेशा मजबूत और मजबूत होती चली गयी, आलोक तोमर आलोक सर कब हो गए पता नहीं चला, हमेशा किसी जैसा होने के खिलाफ रहा, पर पता नहीं क्यूँ उन जैसा हमेशा होना चाहा १९ जुलाई को खबर सुनी आलोक सर के बीमार होने की ॥ आलोक तोमर को गले का कैंसर नामसे खबर चिपकी हुयी है एक साईट पर , प्रभाष जी के जाने का झटका अभी तक दिल झेल नहीं पाया था की ये बुरी खबर झेलनी पड़ रही है, मुझ जैसे तमाम लोग भारत और उसके कई कोनो में मौजूद हैं, जिनके लिए एक संबल, लड़ाकू पत्रकारिता का पितामह और एक मार्ग दर्शक हैं आलोक तोमर... हम जैसों के लिए मसीहा हैं वे अब जिम्मेदारी हमारी है की इस संकट की घडी में आलोक सर के साथ पूरी शिद्दत के साथ खड़ा हुआ जाये, इस वट वृक्ष को हर हाल में बचाना होगा हमें, अपने संबल से, अपने हौसले से और अपनी दुआओं से, इश्वर से दुआ कीजिये की पत्रकारिता का ये यौद्धा फिर से स्वस्थ होकर हमारा मार्गदर्शन करे... हमें रास्ता दिखाए, लड़ने, भिड़ने का हौसला दे फिर से... ढेर सारी दुवायें कीजिये और आलोक सर को हौसला दीजिये जिस तरह से हो सकती है उनकी मदद कीजिये... उनसे aloktomar@hotmail.com पर संपर्क कर उन्हें अपनी शुभ कामनाएं और प्यार दे सकते हैं.. हृदयेंद्र
Thursday, July 15, 2010
क्या इतने असहिष्णु हो गए हैं हम..
इन दिनों meri पसंदीदा वेबसाइट पर लोग इस कदर अराजक हो गए हैं की मैं भौचक्का हूँ, लोगों को वेबसाइट के संपादक नीरेंद्र नागर ने सलीके से पेश आने की गुजारिश क्या कर डाली हरकोई गाली गलौज पर उतर आया है, पढ़े लिखों का ये रूप बहुत दुखी करता है, ये पोस्ट उसी मामले पर मेरी प्रतिक्रिया है
( पोस्ट का link http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/ekla-chalo/न वे वेश्याएं हैं, न सेक्स की भूखी हैं...)
कभी इंडिया टुडे में एक लेख पढ़ा था, दिल्ली के रोड रेजके बारे में था की कैसे एक शांत रहने वाले आदमी ने कुछ सेकंड के उन्माद में आकर एक मासूम की हत्या कर दी...दरअसल नगर जी के इस पोस्ट पर जब लोगों के कमेन्ट पढ़ रहा हूँ तो लगता है पता नहीं कहाँ से उन्मादियों का एक झुण्ड आ गया है जो कुछ समझने के लिए तैयार नहीं है, सबको लगता है अरे सेक्स पर इसने बोला कैसे और हमारे बारे में इसकी बोलने की हिम्मत भी कैसे हुयी, शायद ऐसे ही गुस्से से भरे हुए हैं सब..कोई किसी को झंडू कह रहा है, कोई तेलु, कोई कुछ कोई कुछ,
नगर जी की एक बात जिससे जबरदस्त विरोध मेरा भी है या यूँ कहें की गुस्सा है जिसमे उन्होंने वेश्या शब्द का बड़े अपमानजनक तरीके से इस्तेमाल किया है, दरअसल कबाड़ी बाजार में निकलते हुए आपको एकसाथ इतनी छींकें आएँगी की आपकी हालत ख़राब हो जाएगी, ( वहां दरअसल मसालों की दुकानें हैं जिनकी तीखी गंध नाक बर्दास्त ही नहीं कर पाती) जी बी रोड के सीलन भरे कमरों में घुसते ही अगर इंसानियत नामकी चीज जिन्दा है तो सेक्स तो दूर की बात है उनके साथ अगर कुछ होगा तो सिर्फ सहानुभूति, ( मैं सेक्स karne नहीं बल्कि apni उस किताब par काम करने gaya था जो unki जिंदगियों के baare में hai) नागर जी दुखी हूँ वेश्याओं के दर्द से नावाकिफ होकर उनके बारे में इस कदर लिखने या भाव रखने के लिए, कहते हैं की कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी वरना कोई यूँही बेवफा नहीं होता, यक़ीनन विरोध है लेकिन मैंने अपना विरोध दर्जा करा दिया है बस..बाकि आप समझेंगे,
रही बात खुशबू के सेक्स पर कहे बयान की, तो उसपर हम मर्द क्यूँ हाई तौबा मचा रहे हैं, एक औरत किसके साथ सेक्स करे कब करे ये विवेक असरी, नीरेंद्र नगर या कोई भेजा फ्राई या कोई हृदयेंद्र क्यूँ तय करे या उसपर बिन मांगी सलाह दे, ये खुसबू और आधी आबादी को तय करने दीजिये...
रही बात सचिन नामके सज्जन के कमेन्ट की तो सचिन से सिर्फ इतना ही की दोस्त इस कदर असहिष्णु न तो हम हैं न हमारा इतिहास रहा है, हम असहमत हो सकते हैं, तर्कों के साथ अपनी बात कहने का माद्दा होना चाहिए, गालियाँ, अभद्रता यही सिखाती हैं की हममे सोचने समझने की क्षमता ख़त्म हो गयी है, अगर हम किसी गंभीर मुद्दे पर बोलते, लिखते और बात करते हैं तो फिर बिना दिमाग के बात करने का मतलब क्या है, उम्मीद है सचिन जैसे साथी मेरी बात को समझेंगे, गुस्सा होना चाहिए अगर कुछ गलत लगता है लेकिन सलीकेपसंद और पढ़े लिखे होने के गुमान में जीने वाले हम अगर दूसरों की इज्जत का थोडा सा ख्याल रख लेंगे तो कुछ नहीं जायेगा, न आपको गालियाँ पड़ेंगी न हमें,
एक बार कोई इन कमेन्ट को पढ़ ले यकीन जानिये उन कमेन्ट को लिखने वालों के बारे में आम आदमी की क्या सोच बनेगी ये सोचना भी बड़ा डरावना लगता है, ब्लॉग की आज़ादी का इस कदर मखौल न उड़ाइए दोस्त, कल हमारे-आपके बच्चे भी पढ़ सकते हैं, क्या यही निशानियाँ उनके लिए छोडनी हैं हमें...
( सब गुस्सा हैं, कोई नगर जी से, कोई उनके विचारों से, कोई उनके वेश्या शब्द को अपमानजनक तरीके से पेश करने के, कोई उनके प्रतिक्रिया देने से) गुस्सा रहिये, लेकिन इस बार विरोध क्रिएटिव कीजिये..गाली गलौज के बिना, किसी की माँ बहन को बेइज्जत किये बिना भी बात हो सकती है...उम्मीद है सब समझेंगे...
हृदयेंद्र
( पोस्ट का link http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/ekla-chalo/न वे वेश्याएं हैं, न सेक्स की भूखी हैं...)
कभी इंडिया टुडे में एक लेख पढ़ा था, दिल्ली के रोड रेजके बारे में था की कैसे एक शांत रहने वाले आदमी ने कुछ सेकंड के उन्माद में आकर एक मासूम की हत्या कर दी...दरअसल नगर जी के इस पोस्ट पर जब लोगों के कमेन्ट पढ़ रहा हूँ तो लगता है पता नहीं कहाँ से उन्मादियों का एक झुण्ड आ गया है जो कुछ समझने के लिए तैयार नहीं है, सबको लगता है अरे सेक्स पर इसने बोला कैसे और हमारे बारे में इसकी बोलने की हिम्मत भी कैसे हुयी, शायद ऐसे ही गुस्से से भरे हुए हैं सब..कोई किसी को झंडू कह रहा है, कोई तेलु, कोई कुछ कोई कुछ,
नगर जी की एक बात जिससे जबरदस्त विरोध मेरा भी है या यूँ कहें की गुस्सा है जिसमे उन्होंने वेश्या शब्द का बड़े अपमानजनक तरीके से इस्तेमाल किया है, दरअसल कबाड़ी बाजार में निकलते हुए आपको एकसाथ इतनी छींकें आएँगी की आपकी हालत ख़राब हो जाएगी, ( वहां दरअसल मसालों की दुकानें हैं जिनकी तीखी गंध नाक बर्दास्त ही नहीं कर पाती) जी बी रोड के सीलन भरे कमरों में घुसते ही अगर इंसानियत नामकी चीज जिन्दा है तो सेक्स तो दूर की बात है उनके साथ अगर कुछ होगा तो सिर्फ सहानुभूति, ( मैं सेक्स karne नहीं बल्कि apni उस किताब par काम करने gaya था जो unki जिंदगियों के baare में hai) नागर जी दुखी हूँ वेश्याओं के दर्द से नावाकिफ होकर उनके बारे में इस कदर लिखने या भाव रखने के लिए, कहते हैं की कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी वरना कोई यूँही बेवफा नहीं होता, यक़ीनन विरोध है लेकिन मैंने अपना विरोध दर्जा करा दिया है बस..बाकि आप समझेंगे,
रही बात खुशबू के सेक्स पर कहे बयान की, तो उसपर हम मर्द क्यूँ हाई तौबा मचा रहे हैं, एक औरत किसके साथ सेक्स करे कब करे ये विवेक असरी, नीरेंद्र नगर या कोई भेजा फ्राई या कोई हृदयेंद्र क्यूँ तय करे या उसपर बिन मांगी सलाह दे, ये खुसबू और आधी आबादी को तय करने दीजिये...
रही बात सचिन नामके सज्जन के कमेन्ट की तो सचिन से सिर्फ इतना ही की दोस्त इस कदर असहिष्णु न तो हम हैं न हमारा इतिहास रहा है, हम असहमत हो सकते हैं, तर्कों के साथ अपनी बात कहने का माद्दा होना चाहिए, गालियाँ, अभद्रता यही सिखाती हैं की हममे सोचने समझने की क्षमता ख़त्म हो गयी है, अगर हम किसी गंभीर मुद्दे पर बोलते, लिखते और बात करते हैं तो फिर बिना दिमाग के बात करने का मतलब क्या है, उम्मीद है सचिन जैसे साथी मेरी बात को समझेंगे, गुस्सा होना चाहिए अगर कुछ गलत लगता है लेकिन सलीकेपसंद और पढ़े लिखे होने के गुमान में जीने वाले हम अगर दूसरों की इज्जत का थोडा सा ख्याल रख लेंगे तो कुछ नहीं जायेगा, न आपको गालियाँ पड़ेंगी न हमें,
एक बार कोई इन कमेन्ट को पढ़ ले यकीन जानिये उन कमेन्ट को लिखने वालों के बारे में आम आदमी की क्या सोच बनेगी ये सोचना भी बड़ा डरावना लगता है, ब्लॉग की आज़ादी का इस कदर मखौल न उड़ाइए दोस्त, कल हमारे-आपके बच्चे भी पढ़ सकते हैं, क्या यही निशानियाँ उनके लिए छोडनी हैं हमें...
( सब गुस्सा हैं, कोई नगर जी से, कोई उनके विचारों से, कोई उनके वेश्या शब्द को अपमानजनक तरीके से पेश करने के, कोई उनके प्रतिक्रिया देने से) गुस्सा रहिये, लेकिन इस बार विरोध क्रिएटिव कीजिये..गाली गलौज के बिना, किसी की माँ बहन को बेइज्जत किये बिना भी बात हो सकती है...उम्मीद है सब समझेंगे...
हृदयेंद्र
स्वागत
आज गूगल देवता की कृपा से अपने ब्लॉग का ले आउट थोडा बदला है, मुझे अच्छा लगा ये बदलाव, क्यूंकि बदलाव हमेशा सुखद होता है, राहत देता है कभी कभी, इस बार ज्यादा दे गया...अरे राहत भाई और क्या, शुक्रिया करने का मन किया, गूगल को..कभी कंप्यूटर देखकर दर लगता था..कुछ समझ में ही नहीं आता था..आज सबकुछ आसान लगता है...तकनीक के साथ जुगलबंदी अच्छी लग रही है....ऐसा ही आगे भी जारी रहेगा यही दुआ करता हूँ...
हृदयेंद्र
हृदयेंद्र
Tuesday, June 8, 2010
इस मौत पर...
इस मौत पर
शांत होना चाहता हूँ
मौन होना चाहता हूँ
चुपचाप रोना चाहता हूँ
बहुत कुछ कहना चाहता हूँ
इस मौत पर टूटना चाहता हूँ
बिखरना चाहता हूँ
कुछ मौन रहकर
कहना चाहता हूँ
इस मौत पर...
सांस बंद
करके मुक्त होना चाहता हूँ
अँधेरे में खो जाना चाहता
हूँ इस मौत पर....
( डाली भाभी के लिए....भावभीनी श्रद्धांजलि )
शांत होना चाहता हूँ
मौन होना चाहता हूँ
चुपचाप रोना चाहता हूँ
बहुत कुछ कहना चाहता हूँ
इस मौत पर टूटना चाहता हूँ
बिखरना चाहता हूँ
कुछ मौन रहकर
कहना चाहता हूँ
इस मौत पर...
सांस बंद
करके मुक्त होना चाहता हूँ
अँधेरे में खो जाना चाहता
हूँ इस मौत पर....
( डाली भाभी के लिए....भावभीनी श्रद्धांजलि )
इस मौत पर...
इस मौत पर
शांत होना चाहता हूँ
मौन होना चाहता हूँ
चुपचाप रोना चाहता हूँ
बहुत कुछ कहना चाहता हूँ
इस मौत पर
टूटना चाहता हूँ
बिखरना चाहता हूँ
कुछ मौन रहकर
कहना चाहता हूँ
इस मौत पर...
सांस बंद करके
मुक्त होना चाहता हूँ
अँधेरे में
खो जाना चाहता हूँ
इस मौत पर....
( डाली भाभी के लिए....भावभीनी श्रद्धांजलि )
शांत होना चाहता हूँ
मौन होना चाहता हूँ
चुपचाप रोना चाहता हूँ
बहुत कुछ कहना चाहता हूँ
इस मौत पर
टूटना चाहता हूँ
बिखरना चाहता हूँ
कुछ मौन रहकर
कहना चाहता हूँ
इस मौत पर...
सांस बंद करके
मुक्त होना चाहता हूँ
अँधेरे में
खो जाना चाहता हूँ
इस मौत पर....
( डाली भाभी के लिए....भावभीनी श्रद्धांजलि )
डोली गुप्ता नहीं रही...
डोली गुप्ता नहीं रही, भाभी थी, मित्र, बड़े भाई, अच्छे इंसान, ब्रजेन्द्र निर्मल की पत्नी थी, यंत्रणा के लम्बे दौर के बाद हमें छोड़ गयी, उनके हाथ का खाना खाने की जरूर खवाहिश थी, इस खवाहिश के अधूरे रहने का वाकई अफ़सोस रहेगा, ईश्वरउन्हें शांति देना, उनके परिवार को ताकत, तुम्ही रास्ता दिखा सकते हो, मैं परेशां हूँ, मन अशांत है, फिर वही सवाल की हर भले आदमी के साथ ही ऐसा क्यूँ होता है, मेरे बरेली में रहने की वजह थे ब्रजेन्द्र भाई साहब, भंडारी जी, वीरेन दा...अब मन उचाट सा हो गया है, नहीं रुकना चाहता इस शहर, भाभी आप बिसलेरी का पानी पीना चाहती थी, अस्पताल के पानी से परेशानी थी, यकीन जानिये मैंने सोच रखा था अगली बार जरूर लाऊंगा मैं आपके लिए पर वो अगली बार नहीं आया, मुझे दुःख है, बच्चों के लिए, ब्रजेन्द्र भाई साहब के लिए...दुखी हूँ , आपके लिए कुछ कर पाता तो अपराध बोध थोडा कम होता, आज खबर लगायी, ऐसा कभी नहीं सोचा था, आपकी मौत की खबर लगाऊंगा, इंसान हूँ, आपकी मौत पर फूट, फूट कर रोना चाहता हूँ, पर बहुत कुछ ऐसा है जो मुझे ऐसा नहीं करने दे रहा...वाकई मामा की मौत के बाद करीब दस साल बाद आज रोना चाहता हूँ, खूब....आपका परिवार इस संकट से उबरे यही प्रार्थना करना चाहूँगा, आपकी आत्मा को शांति मिले...
आपका
हृदयेंद्र
आपका
हृदयेंद्र
Friday, January 15, 2010
जवानी के दिन और मोहल्ले का क्रिकेट
क्रिकेट पसंद करने वाले क्रिकेट भी खूब खेले होंगे लेकिन जवानी के दिनोंमें मोहल्ले के पार्क में क्रिकेट खेलने के मजे को शब्दों में शायद ही बाँधा जा सके भले ही गेंद करीने से बल्ले पर न आ रही हो लेकिन बल्ला इस अदा से घुमाना की टंडन जी की वो बेटी जो इस समय जरा अच्छी अच्छी लगती है उसे जरूर अपनी बल्ला घुमाने की स्टाइल दिख जाए, भले ही फील्डिंग करते समय गेंद बार बार हाथ से छूट जाए लेकिन नजरें सक्सेना जी की बालकोनी पर ही टिकी रहती की उनकी इकलौती प्यारी बेटी का पहला या दूसरा प्यार बनने में कोई कमी तो नहीं रह गयी, भले हर गेंद की बल्लेबाज जमकर धुनाई कर रहा हो लेकिन सिद्दीकी अंकल की बेटी नंबर तीन का ध्यान अगर अपने रन अप पर है तो गेंद की धुनाई की फिक्र किस नामाकूल को है। कुल मिलाकर अगर मोहल्ले के पार्क में खेले जा रहे क्रिकेट मैच को पांच लोगों से ज्यादा लोग भले ही न देख रहे हों लेकिन अगर टंडन अंकल की बेटी नंबर एक और सिद्दीकी अंकल की बेटी नंबर तीन जिन पर अपनी नजर कुछ ज्यादा ही संगीन रहती है हमारा मैच देख रही हों तो फिर दर्शक हों या न हो परवाह किसे है, हमारे एक शोट पर उनका मुस्कुराना ही भारी पड़ जाता था, भले ही पूरी टीम बीस रन बनाकर आउट हो जाए लेकिन अगर एक शोट '' उसने '' देख लिया तो हफ़्तों रात में सपनों में वही शोट और उनकी खिलखिलाहट का रिपीट टेलीकास्ट चलता रहता था, एक अजब सा खुमार मोहल्ले के पार्क में खेले गए क्रिकेट मैच का दिलो दिमाग पर रहता था, नजर गेंद पर कम और इस बात पर ज्यादा रहती थी की मोहल्ले की '' वो'' जिनपर '' ये'' ( यानी दिल) फ़िदा थे वो देख रही हैं या नहीं, बल्ला पकड़ने के बाद किसकी नजर गेंद पर रहती थी, नजर तो बस उनपर होती की उनको हमारे बल्ला घुमाने में मजा आ रहा है या नहीं अगर चेहरे पर खिलखिलाहट होती तो माँ कसम बालर बेचारे की धुनाई होनी तय थी और अगर उनको हमारे बल्ला घुमाने में मजा नहीं आ रहा तो अगली ही बाल में आउट होकर ऐसी हरकत करना शुरू करते जिससे उनको कमसे कम मजा तो आये, भले बेवजह फिसल के यूँही गिर जाना या फिर फील्डिंग के दौरान किसी से टकरा जाना जिसे देखकर कमसेकम वो तो हँसे....
कुल मिलाकर अगर मोहल्ला क्रिकेट हमारे लिए विश्वकप से कम नहीं था तो हम भी धोनी से कम कहाँ थे, और इन सब पर अगर वो मैच देख रहे हों तो फिर कहना ही क्या, जवानी की शुरुआत में वो क्रिकेट मैच उन खूबसूरत यादों की तरह होते हैं जिनको भूलना कोई भी नहीं चाहेगा, सालों बाद उन यादों को यादकर एक बार फिर आपने शहर की उन गलियों और चेहरों को याद करने का मौका मिल गया जिन्हें बहुत पहले ही घर छोड़ते वक़्त पीछे छोड़ आया था...शायद मैं ही नहीं शहर में रहनेवाले हर इंसान को मोहल्ले का क्रिकेट मैच याद होगा भले ही उसकी उम्र कितनी भी हो गयी हो, यही है हमारे मोहल्ले का क्रिकेट .....
हृदयेंद्र
कुल मिलाकर अगर मोहल्ला क्रिकेट हमारे लिए विश्वकप से कम नहीं था तो हम भी धोनी से कम कहाँ थे, और इन सब पर अगर वो मैच देख रहे हों तो फिर कहना ही क्या, जवानी की शुरुआत में वो क्रिकेट मैच उन खूबसूरत यादों की तरह होते हैं जिनको भूलना कोई भी नहीं चाहेगा, सालों बाद उन यादों को यादकर एक बार फिर आपने शहर की उन गलियों और चेहरों को याद करने का मौका मिल गया जिन्हें बहुत पहले ही घर छोड़ते वक़्त पीछे छोड़ आया था...शायद मैं ही नहीं शहर में रहनेवाले हर इंसान को मोहल्ले का क्रिकेट मैच याद होगा भले ही उसकी उम्र कितनी भी हो गयी हो, यही है हमारे मोहल्ले का क्रिकेट .....
हृदयेंद्र
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फुहार
- hridayendra
- प्यार करता हूँ सबसे, आपकी कोई भी मदद बिना नफा नुक्सान सोचे कर दूंगा, अपने गुस्से से बहुत डर लगता है, हमेशा कोशिश रहती है की बस ''गुस्सा'' न आये मुझे, लोग मुझे बहुत अच्छे दोस्त, शरीफ इंसान और एक इमानदार दुश्मन के तौर पर याद रखते हैं, एक बार दुश्मनी कीजिये, देखिये कितनी इमानदारी से ये काम भी करता हूँ,