Tuesday, May 26, 2009

रोला गैरा का जादू एक बार फिर से....

इधर आईपीएल का जूनून ख़त्म हुआ उधर रोला गैरा में फ्रेंच ओपन शुरू हो गया, जब दुनिया क्रिकेट की दीवानी है तब भारत जैसे देश में टेनिस को पसंद करना बहुतों के लिए किसी गुनाह से कम नही होगा, पता नही क्यूँ आज भी टेनिस का मैच अगर कभी भी टीवी पर आ रहा हो तो अपने आप नजरें रुक ही जाती हैं, पता नही टेनिस कैसे और क्यूँ इतना पसंद आने लगा पर ये सच है आज भी बोरिस बेकरकी नशीली आँखें और स्टेफी ग्राफ के मासूम रिटर्न एकबारगी फ्लैश बैक में लेकर चले जाते हैं, याद है की गर्मियों की छुट्टियों में हम सब अपने ननिहाल जाया करते थे, वहीँ हम चव्वनी और अठन्नी ( यानि बच्चे) जो कुल मिलकर मैं और मौसी मामा के बच्चे मिलकर करीब एक क्रिकेट टीम के बराबर हो जाते थे टेनिस के मैच पूरी शिद्दत से मिल जुलकर देखते थे, खास बात ये की हम सब चूँकि सारे काम मिल जुलकर करते थे तो टेनिस के मैच भी मिल जुलकर ही देखा करते थे, कब टेनिस के शाट मारते मारते गब्रिएला सबातीनी पसंदीदा हो गयी पता ही नहीं चला, कई साल दिल पर राज करने के बाद स्टेफी ग्राफ का ग्राफ कुछ यूँ चढा की दुनिया में कोई खेल था तो टेनिस और सपनो में कोई आता था तो स्टेफी, ज्यादातर भारतीय युवाओं की पसंदीदा अक्सर कोई भारतीय या विदेशी फिल्म ऐक्ट्रेस होती है लेकिन अपनी पूरी जवानी और आज भी स्टेफी का जादू कम नहीं हुआ है मेरे दिल-ओ-दिमाग से, आज न बोरिस बेकर हैं, न जिम कुरिअर, न ही आंद्रे अगासी और न अपनी छोटी वाली मोनिका सेलेस, आज रोजेर फेडरर को भले देख लेता हूँ लेकिन टेनिस में जिनको सनसनी कहा जाता था शायद ही कोई हो, लेकिन फिर भी हर साल चारों ग्रैंड स्लैम उसी शिद्दत से होते हैं और टेनिस का महापर्व विम्बलडन भी बिना रुके जारी है, चेहरे भले बदल गए हों लेकिन क्रिकेट को सबकुछ मानने वाले देश में टेनिस भी कईयों के लिए दीवानगी है, यकीन न हो तो मेरे जिगरी दोस्त इन्द्रेश मिश्र के हॉस्टल के कमरे में अन्ना कुर्निकोवा की सौ से भी ज्यादा तस्वीर आपको सब कुछ बयान कर देंगी, भले अन्ना टेनिस में बहुत कुछ न कर पायी हों लेकिन लोगों के दिलों में बहुत कुछ हो गया सिर्फ अन्ना की वजह से, तो रोला गैरा फिर से तैयार है टेनिस में कुछ नए और पुराने सितारों की परीक्षा लेने के लिए और कुछ नए स्टार बनाने के लिए हो सकता है इस साल ही कोई नयी टेनिस सनसनी पैदा हो जाय और किसी को अपना दीवाना बना दे, और शायद मैं मरने से पहले एक बार उस सनसनी को फ्रांस जाकर अपनी आँखों से देख सकूँ खेलते हुए और फ्रेंच ग्राउंड पर समां बांधते हुए,


हृदयेंद्र


Saturday, May 23, 2009

ये है दिल्ली मेरी जान

कई साल पहले दिल्ली जब आया था तब मन में यही था की देश के दूसरे मेट्रो की तरह दिल्ली भी एक शहर के माफिक होगी, तब तक मुंबई मेरे दिल पर राज कर रही थी, बचपन में सबसे बड़े दो शहरों की याद ही दिलो दिमाग पर अंकित थी पहली आमची मुंबई और दूसरी भालो कोलकाता, जहाँ कोलकाता की सदी गर्मी और पसीने के साथ टूटी हुयी सड़कों ने इस शहर के प्रति कोई खास लगाव पैदा नहीं किया वहीँ रोज शाम को बैंडस्टैंड पर जाकर समुन्दर की उठती और गिरती लहरें आज भी वैसे ही मौजूद हैं, बहुत छोटा था जब मुंबई जाया करता था, उस समय कहीं मन में ये फैसला किया था की इसी शहर को जीतने आऊंगा एक दिन, लेकिन मुंबई बचपन में जितनी करीब थी बड़े होने के बाद उतनी ही दूर हो गयी, इधर काम धंधे की तलाश में जिंदगी दिल्ली ले आई, इस शहर में ऐसा कुछ नहीं है की इससे प्यार किया जा सके पर पता नहीं क्यूँ मन बार-बार यहीं रुकने को करता है, शायद ये दिल्ली की दिल्लगी ही है की अमेरिका जाने के प्रोग्राम को बार-बार आगे खिसका देता हूँ, सोचता हूँ यार थोडा और थोडा और रुक जाया जाए,
यहाँ की ब्लू लाइन बसों के बेहूदा और गंवार स्टाफ और ब्रांडेड कपडों में सजे धजे यहाँ के जाहिल बाशिंदों को देखकर हमेशा खून खौल जाता है ( दरअसल दिल्ली के आसपास जाटों और गुर्जरों की जमीन थी, और इनको बेंचकर ये बिरादरी पैसेवाली तो हुयी पर शायद दिल्ली की सभ्यता और संस्कृति को अपनी जंगली और बर्बर संस्कृति से जितना नुक्सान खुद दिल्ली के इन जंगली लोगों ने पहुँचाया है उतना शायद ही किसी बाहरी ने दिल्ली की संस्कृति को पहुँचाया होगा) लेकिन पता नहीं क्यूँ हर बार पीवीआर प्रिया पर मौज करने, सेंट्रल पार्क में कुछ अच्छे चेहरे देखने और स्टेटसमैन हाउस में किताबों के सेल्फ में सर खपाना दुनिया में कुछ भी करने से कहीं ज्यादा अच्छा लगता है, हाँ आज भी फ्रेंड्स कालोनी का कम्युनिटी सेंटर ऐसी जगह लगती है जहाँ बैठे-बैठे ही पूरी जिंदगी बिता सकता हूँ, मुनिरका का कैपिटल कोर्ट ऐसी जगह लगती है जहाँ मौसम कोई भी हो बैठने का मजा ही कुछ और है और जेएनयू का माहौल कभी महसूस ही नहीं होने देते की आप किसी बेहद भीड़ भरे और बेतरतीब शहर में हैं,
शायद यही दिल्ली है मेरे दोस्त, कहीं बहुत बुरी सी, तो कहीं बहुत खूबसूरत, जीके जाने पर हर बार मन यही करता है की बस थोडा और रुक जाया जाये थोडा और, यही वजह है की आज भी साउथ दिल्ली में एक अदद आशियाना बनाने की ख्वाहिश हमेशा मन में जिन्दा है, उम्मीद है मेरी जान दिल्ली अपने रंग बिरंगे रंगों के साथ हर बार मुझे यूँ ही रोक लेगी और मैं कहूँगा की दिल्ली मैं आऊंगा और जरुर आऊंगा लौटकर....एक बार फिर

हृदयेंद्र

Saturday, May 2, 2009

कहानी चिरकुट डॉट कॉम की

कई बार बहुत कुछ करने और होने के कोई मायने नहीं होते, कुछ ऐसा ही हम सब के साथ अक्सर या यूँही हो जाता है, एक बेहद दिलचस्प वाकया भी कुछ यूँ ही हो गया और मजाक मजाक में चिरकुट डॉट कॉम नामक वेबसाइट के जन्म की पटकथा लिख ली गयी, दरअसल हुआ कुछ यूँ की एक तकनीक के माहिर मित्र के यहाँ वेबसाइट के निर्माण की बात हो रही थी , इतने में कई चुतियापे भरे सवालों से मेरे मित्र का जैसे ही सर भारी हुआ तो उन्होंने मजाक मजाक में कह दिया भाई चिरकुट डॉट कॉम नामकी वेबसाइट बना डालो, बात मजाक में कही गयी थी लेकिन जब गंभीरता से सोचा तब इस चिरकुट से लगने वाले चिरकुट डॉट कॉम की कई सारी खासियतें पता चली, मसलन अपने बेजोड़ नामके चलते ही कई चिरकुट किस्म के प्राणी इस वेबसाइट से जुड़ सकते हैं, और तो और दुनिया भर का चिरकुट साहित्य और चिरकुट विचारों का मेरे ख़याल से ये अकेला मंच हो सकता है बस जरुरत है तो कुछ चिरकुट किस्म के लोगों को पकड़कर एक अदद चिरकुट डॉट कॉम को शुरू करने भर की, बस फिर देखिये कैसे दुनिया भर के चिरकुट अपनी चिरकुटई से इस चिरकुट डॉट कॉम को किस चिरकुट स्तर तक मेरा मतलब है की '' शीर्ष'' तक पहुंचाते हैं... शायद इसी को कहते हैं मजाक मजाक में एक क्रांतिकारी विचार का उपजना, तो आज से चिरकुट, चूतिये, चुतियापे, चुतियापंथी, चिल्लर, चम्पक, लल्लू, पप्पू और उठाईगीर टाइप के शब्दों पर गंभीरता से सोचना शुरू कीजिये पता नहीं इन फालतू टाइप शब्दों से कौन सा क्रांतिकारी विचार पनप जाए....
तो चिरकुटों की संपूर्ण बिरादरी को प्रणाम के साथ
हृदयेंद्र
२/५/२००९

फुहार

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प्यार करता हूँ सबसे, आपकी कोई भी मदद बिना नफा नुक्सान सोचे कर दूंगा, अपने गुस्से से बहुत डर लगता है, हमेशा कोशिश रहती है की बस ''गुस्सा'' न आये मुझे, लोग मुझे बहुत अच्छे दोस्त, शरीफ इंसान और एक इमानदार दुश्मन के तौर पर याद रखते हैं, एक बार दुश्मनी कीजिये, देखिये कितनी इमानदारी से ये काम भी करता हूँ,