बचपन से ही यारबाजी में महारत हासिल कर रखी है या यूँ कहें की बिना यारबाजी के चैन नहीं मिलता, आखिरी तमन्ना भी यही है की दोस्तों के बीच ही अंतिम सांस टूटे, अरसे से दिल्ली के चूतियापों से ऊब हो गयी थी, तरीका भी कुछ सूझ नहीं रहा था, लेकिन हर सुबह शानदार नहीं होती, देर रात घर लौटने और अमूमन लोगों के जागने के समय सोने के कारण अपनी सुबह कोई दोपहर एक बजे के करीब होती है, दुनिया भले इसे दोपहर कहती हो पर ''जब जागो तभी सवेरा'' तोः अपनी सुबह इतने ही वक़्त होती है, अभी ठीक से आँख खुल भी न पायी की दिन की शुरुआत बड़े भाई समान ''आदर्श दादा'' के फ़ोन से हुयी, इधर बात ख़त्म हुयी उधर निखिल और अजित सिंह का आना हुआ, जब दिमाग की दही हो जाए और इतने बड़े शहर में बोअरियत होने लगे तोः दोस्तों का मिलना किसी कीमती वस्तुके मिलने से भी कहीं ज्यादा सुखद अनुभूति का एहसास कराती है, लगा की वक़्त को समेट लिया जाए, पर न मेरे हाथ में वक़्त आने से रहा न वक़्त का गुजरना, एक बार फिर दोस्तों के करीब होने का मतलब सबसे ज्यादा पता चला और ये भी की ''दोस्त जिन्दा मुलाकात बाकी'' अगर आप भी जिंदगी से ऊब गए हों तोः दोस्तों से मिलें, अच्छा और तरोताजा महसूस करेंगे, और अचानक दोस्तों से मिलें उन्हें खोजें और उनके साथ कुछ वक़्त बिताएं ......उर्जा से लबालब होने के लिए इससे सस्ता नुस्खा किसी हकीम के पास भी शायद ही होः,
वैसे कई दोस्तों को शिकायत है की उन्हें वक़्त नहीं दे पाता ''काकू'' भी यही कहता है लेकिन मिलने के लिए मिला जाए इसलिए बहुतों से नहीं मिलता , काश की '' काकू'' समेट बहुत से दोस्त इस मजबूरी को समझ पाते, लेकिन अब सोचा है की हर हफ्ते किसी करीबी दोस्त से जरुर मिलूँगा, लिस्ट बहुत लम्बी है और वक़्त बहुत कम है इसलिए मैं भी अभी से जुट जाता हूँ दोस्तों से मिलने की योजना बनाने में और आप भी बना लीजिये अपनी योजना....
इस बीच बहुत याद आती है कभी दिल के बेहद करीब रहे आशुतोष नारायण सिंह ( मौजूदा समय में आई बी एन -७ में किसी महत्वपूर्ण पद पर) , प्रमिला दीक्षित ( आजतक की बेहद उर्जावान रिपोर्टर ), वीरेंदर श्रीवास्तव ( स्टार टीवी में इंजिनियर ), दीपांकर नंदी ( आजतक) और तनसीम हैदर (आजतक) के साथ विनय शौरी ( क्राइम रिपोर्टर दैनिक जागरण, पटियाला) की.... इन सबने यारबाजी की मिसाल कायम की थी कभी अगर दोस्ती का इतिहास लिखा जाता तोः इन सबका नाम मैं जरुर उस किताब में लिखवाने की हर मुमकिन कोशिश करता, किसी के लिए अपना इम्तिहान छोड़ देना( आशुतोष) , एक दोस्त के आयोजन को सफल बनाने के लिए तपते बुखार मेंजी जान लगाकर आयोजन को सफल बनाना( प्रमिला) , गर्मियों में बिजली गुल हो जाने पर कमरे में बंद होकर नंगे होकर नाचना( वीरेंदर), बेहद गुरबत के दिनों में भी जूनियरों को छोटे भाइयों की तरह ट्रीट करना( दीपंकर दादा) , ई टी वी में मेरे हर दुःख दर्द को अपने सर लेना( तनसीम भाई) और एक अजनबी शहर में किसी कमी का महसूस न होने देना(शौरी पाजी) आज भी ठीक वैसे याद है , कुछ खफा हो गए कुछ खो गए कुछ से मिलने का वक़्त नहीं मिलता लेकिन आज भी एक दिन तोः क्या जिंदगी उन्ही दोस्तों के नाम करने का मन करता है, हर बार बार बार .....अगर किसी को आशुतोष, प्रमिला और दीपंकर दादा का नंबर मिले तोः भेजनेकी तकलीफ करें मेरी बहुत शुभकामनायें आपको मिलेंगी, बाकी ''अजनबी शहर है दोस्त मिलाते रहिये, दिल मिले तभी हाथ मिलाते रहिये ''...सभी दोस्तों की बेहतरी और शानदार जिंदगी की दुआ के साथ
''हृदयेंद्र ''
Sunday, February 22, 2009
Sunday, December 7, 2008
एक बीमारी का जाना दूर बहुत दूर...
अक्सर वर्क प्लेस में सहयोगी कहे जाने वाले असहयोगियों को झेलना ज्यादातर की या तो मजबूरी होती है या फ़िर आदत...लेकिन हो न हो... ज्यादातर लोग इस दिक्कत से दो चार जरूर होते हैं...ऐसी ही एक दिक्कत से छुटकारा पाने के चलते फील गुड का एहसास कर रहा हूँ, संस्थान के परम कमीने असहयोगी के ऑफिस में न होने से आपकी कार्यक्षमता का असल अंदाजा तभी लगता है..हर ऑफिस की तरह शायद हम सबों के बुरे कर्मो का फल इन महोदय के साथ के रूप में मिला, और अपनी कमीनगी से इन महोदय ने न सिर्फ़ पूरे ऑफिस की थोक में गालियाँ खायी बल्कि ढेर सारी बद्दुआएं भी साथ लेते रहे, लेकिन भला हो इनके घटिया संस्कारों का की महाशय अपनी कमीनगी से इंच भर भी नही हटे और दूसरो के लिए हमेशा परेशानी का सबब बने रहे...आज वाकई हम सुब उस फर्क को महसूस कर रहे हैं जो एक घटिया और कमीने इंसान के अपने बीच न होने से होता है...आख़िर दुनिया को सच और सही रास्ते का ज्ञान देने का ख़म ठोंकने वाले एक अदना से जानवर कहलाने वाले इंसान से डर जाएँ, सुनने में अजीब लगता है, लेकिन सच है..दरअसल हर ऑफिस की यही कहानी है और हर कहीं हम ऐसे घटिया और निकम्मे जानवरों से लड़ने में ना जाने कितनी उर्जा बरबाद करते हैं, क्या किसी ऑफिस में या किसी कंपनी में ऐसे तत्वों से निपटने के लिए कोई योजना बनाई जायेगी ताकि ऑफिस के ज्यादातर लोगों की उर्जा को बरबाद होने से बचाया जा सके...( जानकारी के लिए ये भी की महिलाओं पर कार्यक्रम बनाने वाले चैनल को अपनी नकारात्मक उर्जा और कमीनगी से सराबोर करने के लिए महान आत्मा पदार्पण कर चुकी है, ऐसे में अपनी पूरी सहानुभूति उस चैनल के कर्मठ काम करनेवालों के प्रति रखते हुए, उन सभी के सुखद जीवन की कामना और उस महान आत्मा को धन्यवाद के साथ (हमारा पीछा छोड़ने के लिए) और इश्वर से ऐसी दुरात्माओं को बनाने के लिए घोर शिकायत के साथ ...पुनश्च
''हृदयेंद्र''
समझ नही आता
मौसम का कुछ यूँ रंग बदलना
इंसानों की तरह,
समझ नही आता
इंसानों का रंग बदलना इन्द्रधनुष सा
समझ नही आता
बरसना बेमौसम में
जज्बातों का
समझ नही आता
गर्मी और सर्दी के बीच का इतना लंबा फासला
समझ नही आता
दोस्त कहकर भी दुश्मन सा बने रहना
समझ नही आता
अगर आपको आ जाए समझना तो
जरूर समझाइएगा
समझना चाहता हूँ
जिंदगी की उलझनों को
''हृदयेंद्र''
८.१२.०८
इंसानों की तरह,
समझ नही आता
इंसानों का रंग बदलना इन्द्रधनुष सा
समझ नही आता
बरसना बेमौसम में
जज्बातों का
समझ नही आता
गर्मी और सर्दी के बीच का इतना लंबा फासला
समझ नही आता
दोस्त कहकर भी दुश्मन सा बने रहना
समझ नही आता
अगर आपको आ जाए समझना तो
जरूर समझाइएगा
समझना चाहता हूँ
जिंदगी की उलझनों को
''हृदयेंद्र''
८.१२.०८
Sunday, October 19, 2008
आना घर में नए मेहमान का....
यूँ तो घर है तोः मेहमानों का आना-जाना लगा रहता है, मेहमान ख़ास हो तोः उसके आने की खुशी भी कुछ ज्यादा होती है, कुछ ऐसी ही ख़ास मेहमान की मेहमाननवाजी में इन दिनों जिंदगी का थोड़ा वक्त कट रहा है, नई मेहमान ऐसे यूँ बिना बताये आएँगी कमसे कम उम्मीद नही थी, पर अब इनका आना कुछ यूँ है की इनके फिर कभी ना जाने की ख्वाहिश जरूर दिल में हैं, एक दिन अपने कमरे से निकलकर सोफे पर सुस्ताने के मकसद से जब बैठने चला तो देखा की बेहद नाजुक, भोली भाली दो आँखें कुछ कहना चाह रही थी, इशारा साफ़ था की मियाँ जिस सोफे पर आप अपनी कमर सीधी करने आए हैं उसपर पहले से ही मेरा यानी उन खातून का कब्जा है, आँखें मिली, दिल तक बात गई और फिर सिलसिला आपका नाम क्या है तक जा पहुँचा, जाहिर है खातून इतनी आसानी से नाम कहाँ बताती हैं और उम्र भी इतनी की बस चलना भर या यूँ कहें की फुदकना भर सीखा है, हर रिश्ते में और और रिश्तेदार का कोई नाम न हो तो मजा नही आता, कुछ यही सोचकर मैं इन मोहतरमा का नाम भी रख दिया है, नाम भी ऐसा वैसा नही अदिति है इनका नाम, वैसे दुनिया के सबसे बड़े जानवर यानि की हम इनको जानवर कहते हैं और मजेदारी देखिये गैर बिरादरी का होने के बावजूद हम इन्हे मामा, मौसी और न जाने किन रिश्तों में अपनी सहूलियतों के मुताबिक जोड़ भी लेते हैं, वैसे अदिति भी मेरी मौसी के खानदान से हैं यानि मेरी मौसी की बेटी, इस नाते मेरी बहन भी हुयी, ( बिल्ली हमारी मौसी ही है, अगर मैं ग़लत नही हूँ तोः) और बहन की मेहमाननवाजी में कमी होः मुझे बर्दाश्त नही है, तोः इन दिनों अदिति की खातिरदारी और उनसे रिश्तों कोई और मजबूत बनाने की जद्दोजहद चल रही है, वो है की मेरी बातों पर बड़ी आसानी से यकीन करने को तैयार नही और मैं हूँ की इंसानियत पर हजार दाग लगने के बावजूद शर्मशार नही),
दरअसल इंसानों से दोस्ती करके कबका मन भर गया है इसीलिए कभी दादा जी के गाँव में गाय, कभी भैस और कभी घोडों से दोस्ती कर ली, और राहत इस बात की रही की कभी इनसे दोस्ती के बदले धोखा और फरेब नही मिला, हमारी प्यारी पार्वती गाय ने हमेशा माँ जैसा दुलार दिया तो चेतक ने पीठ पर लादकर गाँव के खेतों और पगडंडियों का रास्ता बखूबी दिखाया, एक दोस्त की तरह हर बार रास्ता सही पकडाया भले दुश्वारियां कितनी रही हों, फ़िर पिल्लू ने मुझे सौभाग्य दिया एक बेटी का बाप बनने का, पिल्लू यानि जिसका खून धरम पाजी अक्सर फिल्मों में पी जाते हैं, वही पिल्लू, एक पिता हूँ मैं और मुझे हमेशा अपनी बेहद गुस्सैल और समझदार बेटी पर गर्व होता है, इन सबका साथ जिंदगी की आपाधापी में पता नही कहाँ छूट गया लेकिन पता नही इंसान कहलाने वाले जानवरों को आज भी दोस्त बनाने का मन नही करता है, बल्कि जानवर कहलाने वाले इंसानों की तरफ़ हमेशा मन भागता है, उनसे दोस्ती को, प्रेम को और मेहमाननवाजी को, खैर...........
इस बीच शहर बदला लेकिन अपने पुराने दोस्तों का भरोसा और उनका प्यार था की मन यहाँ भी उनसे या उनके छूट गए रिश्तेदारों से ही मिलने का करता है, तभी मौका मिलने पर छोटा चेतन को दोस्त बना लेता हूँ या फिर अदिति से दोस्ती का हाथ बड़ा देता हूँ, दरअसल इनसे दोस्ती पर एक यकीन जरूर कायम रहता है की इस दोस्ती की मुझे कोई कीमत नही चुकानी पड़ेगी और थोड़े से प्यार के बदले बेहिसाब प्यार का भरोसा भी टूटने वाला नही है तभी तो हर बार और बार बार मन किसी अदिति और किसी चेतन को इधर उधर खोजता रहता है, फिलहाल मैं अदिति की सेवा में व्यस्त हूँ मुझे disturb न किया जाए....और हाँ अदिति से इतनी इल्तजा भी कर रहा हूँ की ....
अदिति, हंस दे, हंस दे, हंस दे, हंस दे तू जरा, कभी तो बस थोड़ा-थोड़ा-थोड़ा मुस्कुरा.....
फिलहाल कोशिश जारी है अदिति के मुस्कुराते ही आप सबको ख़बर की जायेगी तब तक के लिए नमस्कार.....
हृदयेंद्र
दरअसल इंसानों से दोस्ती करके कबका मन भर गया है इसीलिए कभी दादा जी के गाँव में गाय, कभी भैस और कभी घोडों से दोस्ती कर ली, और राहत इस बात की रही की कभी इनसे दोस्ती के बदले धोखा और फरेब नही मिला, हमारी प्यारी पार्वती गाय ने हमेशा माँ जैसा दुलार दिया तो चेतक ने पीठ पर लादकर गाँव के खेतों और पगडंडियों का रास्ता बखूबी दिखाया, एक दोस्त की तरह हर बार रास्ता सही पकडाया भले दुश्वारियां कितनी रही हों, फ़िर पिल्लू ने मुझे सौभाग्य दिया एक बेटी का बाप बनने का, पिल्लू यानि जिसका खून धरम पाजी अक्सर फिल्मों में पी जाते हैं, वही पिल्लू, एक पिता हूँ मैं और मुझे हमेशा अपनी बेहद गुस्सैल और समझदार बेटी पर गर्व होता है, इन सबका साथ जिंदगी की आपाधापी में पता नही कहाँ छूट गया लेकिन पता नही इंसान कहलाने वाले जानवरों को आज भी दोस्त बनाने का मन नही करता है, बल्कि जानवर कहलाने वाले इंसानों की तरफ़ हमेशा मन भागता है, उनसे दोस्ती को, प्रेम को और मेहमाननवाजी को, खैर...........
इस बीच शहर बदला लेकिन अपने पुराने दोस्तों का भरोसा और उनका प्यार था की मन यहाँ भी उनसे या उनके छूट गए रिश्तेदारों से ही मिलने का करता है, तभी मौका मिलने पर छोटा चेतन को दोस्त बना लेता हूँ या फिर अदिति से दोस्ती का हाथ बड़ा देता हूँ, दरअसल इनसे दोस्ती पर एक यकीन जरूर कायम रहता है की इस दोस्ती की मुझे कोई कीमत नही चुकानी पड़ेगी और थोड़े से प्यार के बदले बेहिसाब प्यार का भरोसा भी टूटने वाला नही है तभी तो हर बार और बार बार मन किसी अदिति और किसी चेतन को इधर उधर खोजता रहता है, फिलहाल मैं अदिति की सेवा में व्यस्त हूँ मुझे disturb न किया जाए....और हाँ अदिति से इतनी इल्तजा भी कर रहा हूँ की ....
अदिति, हंस दे, हंस दे, हंस दे, हंस दे तू जरा, कभी तो बस थोड़ा-थोड़ा-थोड़ा मुस्कुरा.....
फिलहाल कोशिश जारी है अदिति के मुस्कुराते ही आप सबको ख़बर की जायेगी तब तक के लिए नमस्कार.....
हृदयेंद्र
Saturday, June 21, 2008
नसों से रिसते दर्द की दास्ताँ...

मीडिया के बेहद करीबी मित्र हैं नितिन श्रीवास्तव, इस वक्त इंडिया न्यूज़ चैनल के प्रोड्यूसर हैं, पिछले कई वर्षों से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हैं तोः इस मीडिया की जरुरी दिक्कत वक्त की कमी के शिकार हमेशा रहते हैं, इसकी वजह से मुझे भी अक्सर वक्त नही दे पाते और मेरे कोप का भाजन बनते रहते हैं, कई बार बरास्ते मेल और फ़ोन मेरे कठोर वचन सुनते रहते हैं, बेहद गहरी आंखों की गहराई से मुझे देखकर सिवाय हंस देने के इनके पास कभी कोई चारा नही रहता, मेरे गुस्से को सही जगह लगाने के लिए अक्सर कुछ बेहतर चीजें और पंक्तियाँ मुझे मेल करते रहते हैं ताकि अपना दिमाग ठिकाने रख सकूँ, मीडिया में मेरे तमाम शुभचिंतकों की तरह हमेशा अच्छी और सबसे बेहतर सलाह देते रहते हैं...
आज सुबह भी नितिन की मेल आई, इनबोक्स में मेल देखते ही राहत हुयी की कुछ बेहतर ही होगा पदने लायक, सब काम ख़त्म करके नितिन की मेल पदने का मन बनाया, उस वक्त मुझे भी एहसास नही था की नितिन की मेल देखकर मेरी रूह कांप जायेगी, वैसे रूह कितना कापी कितना तकलीफ हुयी इसका पैमाना तोः नही था लेकिन तस्वीर ने जो कहा वो बहुत दुखदायी था, एक तरफ़ मौर्या शेरेटन और लुटियन की दिल्ली की भव्यता दूसरी तरफ़ संवेदनाओं को भी चरम तक चोट पहुंचाने वाली घोर गरीबी...दरअसल मेल में एक भूख से जर्जर हुए और जिन्दा रहने के लिए जद्दोजहद करते बच्चे की तस्वीर थी जो अन्न का एक टुकडा पाने के लिए संघर्ष करने में जुटा था, तस्वीर को देखकर जो होना था वह तोः हुआ ही लेकिन इस बीच एक संकल्प जरूर बेहद मजबूती के साथ मन में उपजा, की कम से कम अन्न की बर्बादी और दिखावे का नंगा नाच करने से जीवन में जितना बचा जा सके बचने की जरुर कोशिश करूँगा...यही है वो तस्वीर और येः है एक जरुरी जानकारी जो देश की बहुत सी भूखी आत्माओं को तृप्त कर सकेगी हमारे और आपके सहयोग से...
मेरी और शायद मुझ जैसे तमाम इंसान कहे जाने वाले लोगों की आत्माओं को अरसे बाद इस कदर झकझोरने के लिए नितिन को साधुवाद..इस तस्वीर के साथ कुछ शब्द लिखे हैं जिनका मतलब है इस कड़ी को टूटने न दें, तोः यही अपील की इस कड़ी को संवेदनाओं और इंसानियत के मापदंडों पर रखकर इसे टूटने न दें...
पत्रकारों की संवेदनशील जमात में खड़ा होने के लिए नितिन मेरी तरफ़ से साधुवाद, तुमने जो जीवन भर किया है उन्ही तर्कों,विचारों और सिद्धांतों पर कायम हो ये कम से कम मेरे लिए राहत की बात है...
''हृदयेंद्र''
Monday, June 16, 2008
आधी रात को भैंसा गाड़ी...
पता नही आवारागर्दी की आदत है या नई चीजें एक्सप्लोर करने की धुन या पता नही क्या...रात १२.३५ पर गाड़ी उठाकर शहर का मिजाज देखने निकल पड़ा...अभी टोल ब्रिज के अलसाते हुए सुरक्षा गार्डों और कर्मचारियों के दर्द को थोड़ा बहुत महसूस करने की कोशिश कर ही रहा था की...अचानक नज़र टोल रोड के बगल में खेतों पर चली गई...आधी रात और घुउप अँधेरा कहीं कुछ नज़र नही आ रहा था रात की स्याही हर कुछ काला कर देना चाहती थी...इधर सड़क ने भी रात को सुस्ताने का मन बना लिया था शायद...तभी रोड पर न हलचल थी न रफ़्तार...सब कुछ एकदम सुस्त था...अचानक नज़र घूमी और कुछ देखने की कोशिश की तोः नज़र आई एक भैंसा गाड़ी और उसपर कुछ गुनगुनाता हुआ किसान कहा जाने वाला एक इंसान... आधी रात को मजे लेकर यूं किसी का मजे में गाना...दुनिया से बेखबर होकर...बड़ा अचरज हुआ...अगर गाँव होता तोः महीने भर का मसाला लोगों को मिल गया होता..भैंसा गाड़ी का यूं आधी रात को खेतों पर निकलना जरूर मसाला होता गाँवों की चौपालों में...किसी को भूत, किसी को प्रेत तोः किसी को जिन्न... इन्ही मासूमों में नज़र आता...कुल मिलकर भैसा और उसका मालिक जरूर चर्चा का विषय होते चौपालों और दालानो में...यहाँ भी भाग्यशाली था भैसा गाड़ी का मालिक की किसी पारखी चैनल के पत्रकार की नजर उसपर नही गई वरना यहाँ भी इस गरीब को चैनलों की सुर्खियाँ बनते कितनी देर लगती...कोई इसे भूत बनाता, कोई प्रेत तोः कोई कुछ...अचरज नही की किसी को आरुशी का हत्यारा ही इसमे नजर आ जाता... लेकिन पिछले जन्मों के पुण्य का फल शायद इसे मिला की आधी रात को इसका निकलना किसी की चर्चा का मुद्दा नही बना...हाँ इस नामुराद भैंसे और इसके मालिक के आधी रात को यूं खेतों में निकलते देख मैंने गाड़ी के मालिक से सवाल जरूर ठोंक मारे...की आधी रात को क्या तुम्हे लुटने का डर नही है, क्या अँधेरा तुम्हे डराता नही आदि आदि...जाहिर है उस गरीब के सवाल वही....दिन में वक्त नही मिलता, और गर्मी मुझे भी लगती है...कमाई के लिए नौकरी जाना पड़ता है और खेतों में जुटने की पारी रात को ही शुरू होती है...न सवाल ख़ास थे न उनके जवाब....पर आधी रात को गाड़ियों और भीड़ से भरे शहर में गुनगुनाते हुए भैसा गाड़ी के मालिक से बेतहाशा ईर्ष्या हुयी...उस वक्त और भी जब उसने बताया की मैं रोज यूँही गुनगुनाते हुए खेतों से चारा लाता हूँ..अपने जानवरों के लिए...जाहिर है उसके लिए न रात अजनबी थी, न उसकी ठंडक और न उसका जीवन और नियति भी नही...शायद तभी आधी रात उस किसान के लिए न सोने का बहाना थी, न शराबखाने के धुएं में खोने की कड़ी और न ही लफ्फाजियों में जाया करने की चीज...उसके लिए रात एक नियति थी जिसे खुशी-खुशी स्वीकार करने में एक अदद भैसा गाड़ी के मालिक को कोई हर्ज न था...जाहिर है रात के अंधेरे के साथ खुशी-खुशी जीना उस किसान ने सीख लिया था और यही थी उसके गुनगुनाने की वजह आधी रात को बेवजह.......और मुझे आजकी रात का सबक मिल चुका था...
हृदयेंद्र
हृदयेंद्र
Saturday, June 7, 2008
दिलों को जीतने का फन यानी चेतन...
जल्द ही एक ख़बर छपी थी अख़बारों में...राहत देने लायक...अरसे से सुस्त पड़े भारत के प्रकाशन उद्योग को एक शख्स ने हिम्मत दी है...नाम है...चेतन भगत...ख़बर भारत के प्रकाशन उद्योग की पतली होती हालत पर थी...ख़ुद को दुनिया के सबसे बडे ज्ञानियों में शुमार करने वाले भारत के साहित्यकारों की कलम में न इतनी ताकत बची है और न कूवत की उनको देश के एक लाख पाठक भी पद सकें...आज के जमाने में जब हर कोई दुनिया का सबसे ज्ञानवान साहित्यकार और कलमकार होने के दिखावे में जुटा है तोः येः आंकडा वाकई कहानी की असल सच्चाई बयान करता है...जाहिर है हिन्दी साथ ही अंग्रेजी और दूसरी भारतीय भाषा के किसी फुल टाइम साहित्यकार की इतनी कूवत नही है की उनकी कहानी या रचना को पचास हजार लोग भी पढ़ सकें...जाहिर है इस बार भी सच्चाई अपने सबसे तल्ख़ रूप में सामने है...क्या अजब दुर्भाग्य है की दुनिया पलटने, क्रांति करवा देने, सर्वहारा की लड़ाई के अकेले प्रतिनिधि होने का दावा करने और प्रगतिशीलता के सबसे बड़े लम्बरदारों को आम जन और आम पाठक ने सिरे से नकार दिया है...भले कुछ लोग या एक वर्ग को ये खोखले साहित्यकार अपनी लफ्फाजियों से बरगला लें लेकिन पाठक को भ्रमित कर पाना इनके लिए आसन नही रहा...बड़ा हास्यास्पद लगता है जब दुनिया में क्रांति कर देने वाले और दूसरो को आदर्शों का पाठ सिखाने वाले साहित्यकार अपनी रचना की रोयाल्टी के लिए प्रकाशकों के चक्कर लगाते लगाते दुनिया से रुखसत हो लिए...जाहिर है एक अदद धाकड़ साहित्यकार की कमी का नतीजा था की साहित्यकार प्रकाशकों के चम्पू से ज्यादा कुछ नही रहे...खासकर अपने हिन्दी वाले तोः और भी बेचारी हालत में हैं...हंस, कथादेश और इस जैसी तमाम पत्रिकाएं एक अदद विज्ञापन को तरसती हैं...विज्ञापन न मिलने की दशा में अपने दिमागी साहित्यकार येः तर्क गढ़ते हैं की बाजार के दबाव में आए बिना हम पत्रिका निकलना चाहते थे इसलिए हम विज्ञापनों से अपनी पत्रिका को दूर रखते हैं...दरअसल इसके पीछे का मनोविज्ञान सामने लाना चाहता हूँ...अगर आपकी स्वीकार्यता है तोः बाजार भी आपको स्वीकार करता है...(बाजार कोई हव्वा या दूसरे ग्रह से आई चीज नही है)...आम पाठक द्वारा अस्वीकार किए जाने और बुरी तरह पिटने के बावजूद भी येः अखबार, पत्रिकाएं और इनके तंगदिल करता धरता इस मुगालते में ही जीना पसंद करते हैं की हम सबसे बेहतर हैं...चाहे पाठक हमें पसंद करे या न करे लेकिन हम तोः अपना अजेंडा लिखने में चलाते रहेंगे...
खैर....येः दास्ताँ बहुत लम्बी है....लेकिन...साहित्य जगत में वाकई अगर किसी इंसान ने हलचल मचाई है तोः वोः है चेतन भगत...एक गैर साहित्यकार का इस तरह साहित्य की दुनिया में आना और भारत का बेहतरीन लेखक बन जाना बहुत कुछ कह जाता है...हाल येः है की चेतन की हालिया प्रकाशित किताब Three mistakes of my life… की दो लाख प्रतिया बाजार में आने से पहले ही बुक हो चुकी हैं ऐसा नही है की अंधे के हाथ कोई बटर लग गई हो..उनकी पहली किताब five point some one… भी ६ लाख का आंकडा बिक्री में पार कर चुकी है और इसकी मांग लगातार जारी है...चेतन की दूसरी किताब one night at call centre… का भी लगभग यही रेकार्ड रहा...उनको न अपनी रोयाल्टी के लिए किसी प्रकाशक के सामने रिरियाना पड़ता है और न ही प्रकाशक उन्हे तंग करने का साहस करता है...ऐसा नही है की चेतन कोई क्रांतिकारी लेखक हैं या विद्वान् बल्कि इस लेखक ने अपनी किताब पढने से पहले पाठक को बेवकूफ समझने की भूल नही की और न ही अपनी सनक को सब पर थोपने की कोशिश...सीधी, इमानदार और नौजवानों को समझ आने वाली भाषा और लेखन का नतीजा क्या हो सकता है उसकी कहानी आंकडे ख़ुद बयान करते हैं....वाकई हिन्दी के लेखकों के लिए ये सपना ही है और रहेगा...इन तीनो किताबों की खासियतें अगर देखें तोः इनकी भाषा भी है...बेहद सरल अंग्रेजी में लिखी येः किताबें खुशी, रोमांच, गुस्सा और भावनाओं को बेहद सलीके से छूती हैं...इसका अंदाजा मुझे उस वक्त भी मिला जब मैं देश के विभिन्न हिस्सों में घूमा और वहाँ की तरक्की पसंद नौजवान पीढ़ी से मिला...सबको चेतन का लिखा खूब पसंद आया...इस सबके बीच जिस सवाल का जवाब मुझे चाहिए था वह भी मिला जवाब था की जब तक पाठक की पसंद को जाने बिना लेखन किया जायेगा उसका हश्र अपने हिन्दी के लेखकों जैसा ही होगा....आज शायद ही हिन्दी का कोई लेखक अपनी लेखनी के दम पर १०००० पाठकों को अपनी किताबें पढ़ा सकता हो...जनसत्ता का बुरी तरह फ्लॉप होना, कुछ फटीचर किस्म के साहित्यकारों तक ही हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं का सिमट जाना...हिन्दी और विचारों को ख़ुद की संपत्ति मानने वाले साहित्यकारों के मुंह पर करारा तमाचा है...आज भी देश के सबसे बडे मध्य वर्ग और सबसे बडे तबके युवा वर्ग के बीच गैर साहित्यकारों की कृतियों का बेस्ट सेलर होना अगर कुछ कहता है तोः हिन्दी के झंडाबर्दारों की असफलता की कहानी...रोबिन शर्मा की the monk who sold his ferrari…का घर-घर में लोकप्रिय होना भी इसी कड़ी का एक हिस्सा भर है...मैं अक्सर जेएनयू और india habitat centre… में गावों और शहरों से आने वाले नौजवान साथियों को देखता हूँ जो ख़ुद को बुद्धिजीवी साबित करने के लिए बेसिर पैर के विचारों से लैस होते हैं..उनकी प्रासंगिकता को जाने बिना घंटों व्यर्थ के वाद-विवाद में उलझने से भी उन्हें गुरेज नही है...बाजार ने समाज, साहित्य, विचार और लोगों की प्राथमिकताओं को बदला है इससे भी इन गरीब बुद्धिजीवियों को कोई लेना देना नही है अफ़सोस यही कथित बुद्धिजीवी बाद में लेखक का जामा पहनते हैं और लेखन की दुनिया में प्रकाशकों की बहुत सी स्याही और कागज़ के ढेर बरबाद करके हिन्दी और हिन्दी साहित्य का जनाजा निकालते हैं...आज हिन्दी के किसी साहित्यकार की इतनी हैसियत नही है की वो इन नौसिखिये लेखकों का मुकाबला तक कर सके... जाहिर है विचारों के प्रपंच से कुछ लोगों को ही बेवकूफ बनाया जा सकता है....ज्यादातर को नही...जाहिर है चेतन भगत और इन जैसे लेखक उम्मीद बंधाते हैं और एहसास भी की नए भारत और नए दौर को समझने का दम अंग्रेजीदां कही जाने वाली पीढ़ी के गुमनाम से नौजवानों में है और येः अपने लिखे से अच्छे अच्छे साहित्यिक माफियाओं को उनकी हैसियत का एहसास कराने में सक्षम हैं...तोः इन युवा तुर्को और इनकी काबिलियत को सलाम किया जाए और हिन्दी के कथित साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को थोडी सी शर्म भेजी जाए बुरी तरह से इन नौसिखिये कलमकारों के हाथों पिटने के लिए....
हृदयेंद्र
खैर....येः दास्ताँ बहुत लम्बी है....लेकिन...साहित्य जगत में वाकई अगर किसी इंसान ने हलचल मचाई है तोः वोः है चेतन भगत...एक गैर साहित्यकार का इस तरह साहित्य की दुनिया में आना और भारत का बेहतरीन लेखक बन जाना बहुत कुछ कह जाता है...हाल येः है की चेतन की हालिया प्रकाशित किताब Three mistakes of my life… की दो लाख प्रतिया बाजार में आने से पहले ही बुक हो चुकी हैं ऐसा नही है की अंधे के हाथ कोई बटर लग गई हो..उनकी पहली किताब five point some one… भी ६ लाख का आंकडा बिक्री में पार कर चुकी है और इसकी मांग लगातार जारी है...चेतन की दूसरी किताब one night at call centre… का भी लगभग यही रेकार्ड रहा...उनको न अपनी रोयाल्टी के लिए किसी प्रकाशक के सामने रिरियाना पड़ता है और न ही प्रकाशक उन्हे तंग करने का साहस करता है...ऐसा नही है की चेतन कोई क्रांतिकारी लेखक हैं या विद्वान् बल्कि इस लेखक ने अपनी किताब पढने से पहले पाठक को बेवकूफ समझने की भूल नही की और न ही अपनी सनक को सब पर थोपने की कोशिश...सीधी, इमानदार और नौजवानों को समझ आने वाली भाषा और लेखन का नतीजा क्या हो सकता है उसकी कहानी आंकडे ख़ुद बयान करते हैं....वाकई हिन्दी के लेखकों के लिए ये सपना ही है और रहेगा...इन तीनो किताबों की खासियतें अगर देखें तोः इनकी भाषा भी है...बेहद सरल अंग्रेजी में लिखी येः किताबें खुशी, रोमांच, गुस्सा और भावनाओं को बेहद सलीके से छूती हैं...इसका अंदाजा मुझे उस वक्त भी मिला जब मैं देश के विभिन्न हिस्सों में घूमा और वहाँ की तरक्की पसंद नौजवान पीढ़ी से मिला...सबको चेतन का लिखा खूब पसंद आया...इस सबके बीच जिस सवाल का जवाब मुझे चाहिए था वह भी मिला जवाब था की जब तक पाठक की पसंद को जाने बिना लेखन किया जायेगा उसका हश्र अपने हिन्दी के लेखकों जैसा ही होगा....आज शायद ही हिन्दी का कोई लेखक अपनी लेखनी के दम पर १०००० पाठकों को अपनी किताबें पढ़ा सकता हो...जनसत्ता का बुरी तरह फ्लॉप होना, कुछ फटीचर किस्म के साहित्यकारों तक ही हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं का सिमट जाना...हिन्दी और विचारों को ख़ुद की संपत्ति मानने वाले साहित्यकारों के मुंह पर करारा तमाचा है...आज भी देश के सबसे बडे मध्य वर्ग और सबसे बडे तबके युवा वर्ग के बीच गैर साहित्यकारों की कृतियों का बेस्ट सेलर होना अगर कुछ कहता है तोः हिन्दी के झंडाबर्दारों की असफलता की कहानी...रोबिन शर्मा की the monk who sold his ferrari…का घर-घर में लोकप्रिय होना भी इसी कड़ी का एक हिस्सा भर है...मैं अक्सर जेएनयू और india habitat centre… में गावों और शहरों से आने वाले नौजवान साथियों को देखता हूँ जो ख़ुद को बुद्धिजीवी साबित करने के लिए बेसिर पैर के विचारों से लैस होते हैं..उनकी प्रासंगिकता को जाने बिना घंटों व्यर्थ के वाद-विवाद में उलझने से भी उन्हें गुरेज नही है...बाजार ने समाज, साहित्य, विचार और लोगों की प्राथमिकताओं को बदला है इससे भी इन गरीब बुद्धिजीवियों को कोई लेना देना नही है अफ़सोस यही कथित बुद्धिजीवी बाद में लेखक का जामा पहनते हैं और लेखन की दुनिया में प्रकाशकों की बहुत सी स्याही और कागज़ के ढेर बरबाद करके हिन्दी और हिन्दी साहित्य का जनाजा निकालते हैं...आज हिन्दी के किसी साहित्यकार की इतनी हैसियत नही है की वो इन नौसिखिये लेखकों का मुकाबला तक कर सके... जाहिर है विचारों के प्रपंच से कुछ लोगों को ही बेवकूफ बनाया जा सकता है....ज्यादातर को नही...जाहिर है चेतन भगत और इन जैसे लेखक उम्मीद बंधाते हैं और एहसास भी की नए भारत और नए दौर को समझने का दम अंग्रेजीदां कही जाने वाली पीढ़ी के गुमनाम से नौजवानों में है और येः अपने लिखे से अच्छे अच्छे साहित्यिक माफियाओं को उनकी हैसियत का एहसास कराने में सक्षम हैं...तोः इन युवा तुर्को और इनकी काबिलियत को सलाम किया जाए और हिन्दी के कथित साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को थोडी सी शर्म भेजी जाए बुरी तरह से इन नौसिखिये कलमकारों के हाथों पिटने के लिए....
हृदयेंद्र
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फुहार
- hridayendra
- प्यार करता हूँ सबसे, आपकी कोई भी मदद बिना नफा नुक्सान सोचे कर दूंगा, अपने गुस्से से बहुत डर लगता है, हमेशा कोशिश रहती है की बस ''गुस्सा'' न आये मुझे, लोग मुझे बहुत अच्छे दोस्त, शरीफ इंसान और एक इमानदार दुश्मन के तौर पर याद रखते हैं, एक बार दुश्मनी कीजिये, देखिये कितनी इमानदारी से ये काम भी करता हूँ,