Tuesday, August 4, 2009

इस मन्दिर से मयखाना भला...

कभी हरिवंश रॉय बच्चन जी ने कहा था की मन्दिर मस्जिद बैर कराते मेल कराती मधुशाला....उस वक्त बड़ा बवाल मचा लेकिन कोई बात यूँ ही नही होती....मुटियाए खाए और अघाये लोगों को जब मन्दिर की तरफ़ जाते देखता हूँ तो बड़ी कोफ्त होती है, लाख कुकर्म पर मन्दिर की देहरी का एक बार लाँघ जाना बहुत भरी पड़ता है...यही वजह है मन्दिर मस्जिद कहीं भी बना लीजिये हर शो हाउसफुल जाएगा ही जाएगा...मुद्दे पर आता हूँ...मन मारकर कुछ दिनों से मयूर विहार में रह रहा हूँ, गरीबों दुखियारों और मजलूमों की बस्तियों में जो दिक्कतें होती हैं यमुना पार की लगभग सभी कॉलोनियों में वही दिक्कतें हैं, मसलन लाइट का यूँही घंटो गायब रहना, यातायात की बुरी हालत और हर चीज एकदम बेतरतीब....कहाँ साउथ दिल्ली में मेरी जिंदगी कहाँ यमुना पार की जिंदगी....इससे कोफ्त है इसीलिए यहाँ आने के बाद ही भागने का जुगाड़ लगाने लगा, खैर....कुछ ऐसा ही कल देर रात भी हुआ...लाइट यूँही चली गई और बड़ी देर के लिए गई...किसी मित्र के यहाँ बैठा था सो घर पर जब गर्मी में उबल कर मरना बर्दाश्त से बाहर की बात लगी तो बाहर निकलने में ही भलाई समझी...इसी बीच नए बने मन्दिर के पास पड़ी बेंच पर जैसे ही बैठा था की एक पिल्लै के कराहने की अनवरत आवाज कानों में बरबस ही गूंजने लगी...हर कमजोर की मदद करने का मन हमेशा करता है सो ख़ुद को रोक नही पाया और आधी रात में पिल्ला खोजो कार्यक्रम में जुट गया, पिल्ला दिख भी गया और जब दिखा तो उससे कहीं ज्यादा तकलीफ मुझे हुयी, एक मन्दिर के अहाते में कई दिनों से भूखे प्यासे उस कुत्ते के पिल्लै को न किसी ने खाना दिया था और न पानी, बचपन से जानवरों के बेहद करीब होने के नाते बात समझ में आ गई थी की ये पिल्ला पानी की कमी, भूख और अपनी माँ से अलग होने की पीड़ा झेल रहा था, खास बात ये की मन्दिर के अहाते में ये पिल्ला कई दिनों से यूँही अपने तरीके से मन्दिर आने वाले कथित भक्तों से मदद की आस में गुहार लगा रहा था लेकिन भगवान् के भक्तों को जब इंसान की फिकर नही तो जानवर के प्रति सहानुभूति का नाम कौन लेता...जब घर से उस पिल्लै को पानी और रोटियाँ दी गई तो वो मासूम हमें छोड़ने के लिए तैयार ही नही था, जाहिर हैं जानवर होकर उसने अपनी संवेदनशीलता नही त्यागी लेकिन इंसान होकर कितनी आसानी से हम असंवेदनशील हो गए ये प्रभु के भक्तों ने शायद सोचा भी नही जाहिर है तभी इंसान मुझे हमेशा जानवर से बदतर ही लगता रहा है,
आधी रात को जब मैं और वो मासूम पिल्ला जुगलबंदी में जुटे थे, तभी एकाएक अपने बड़े भाई भूपेश चट्ठा के साथ पटियाला के शराबघरों की बेसाख्ता याद आ गई की कैसे वहां शहर भर के शराबी हर किस्म के शिकवे भूलकर एकसाथ बड़े मजे से बड़े खुलूस के साथ जाम लडाते थे और एक दुसरे के लिए जान तक दे देने को तैयार रहते थे..भले ही नशे में.....उस रात मुझे उन दारु के अड्डों की बड़ी याद आई जहाँ कम से कम किसी को भूखा मरने के लिए कोई यूँही नही छोड़ने को तैयार था....एक मन्दिर के अहाते में तिल तिल कर मर रहे एक मजलूम की आवाज घंटों के भीतर दब जाए उस मन्दिर जाकर क्या करना.....उससे कहीं भला वो मयखाना लगा....
वाकई मन्दिर और मस्जिद बैर कराते हों या नही लेकिन आज तक किसी मजलूम की मदद करते मैंने नही देखा इन मंदिरों और मस्जिदों के मठाधीशों को...इसीलिए मुझे आज भी इनसे घिन आती है और मन्दिर में खूबसूरत लडकियां देखने के अलावा आज भी दूसरे किसी मकसद से नही जाता, मुझे लगता है मेरा मकसद सही है और ये मन्दिर मस्जिद और इनमे सर झुकाने वाले आज भी ग़लत...सच क्या है..ये मेरा इश्वर जानता है.....वो कहाँ है..ये मुझे मालूम है....वो या तो किसी मासूम खिलखिलाहट में है..या पूँछ हिलाते किसी चौपाये में या मेरी तरफ़ बड़ी आस लगाकर देखती कुछ आंखों में है....शायद इसीलिए मैं मन्दिर जाने के बजाय बेटू की मुस्कराहट देखने जरूर उसके घर पहुँच जाता हूँ....जाहिर है मेरे भगवान् मन्दिर में जो नही हैं.....
हृदयेंद्र

फुहार

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प्यार करता हूँ सबसे, आपकी कोई भी मदद बिना नफा नुक्सान सोचे कर दूंगा, अपने गुस्से से बहुत डर लगता है, हमेशा कोशिश रहती है की बस ''गुस्सा'' न आये मुझे, लोग मुझे बहुत अच्छे दोस्त, शरीफ इंसान और एक इमानदार दुश्मन के तौर पर याद रखते हैं, एक बार दुश्मनी कीजिये, देखिये कितनी इमानदारी से ये काम भी करता हूँ,