Monday, June 16, 2008

आधी रात को भैंसा गाड़ी...

पता नही आवारागर्दी की आदत है या नई चीजें एक्सप्लोर करने की धुन या पता नही क्या...रात १२.३५ पर गाड़ी उठाकर शहर का मिजाज देखने निकल पड़ा...अभी टोल ब्रिज के अलसाते हुए सुरक्षा गार्डों और कर्मचारियों के दर्द को थोड़ा बहुत महसूस करने की कोशिश कर ही रहा था की...अचानक नज़र टोल रोड के बगल में खेतों पर चली गई...आधी रात और घुउप अँधेरा कहीं कुछ नज़र नही आ रहा था रात की स्याही हर कुछ काला कर देना चाहती थी...इधर सड़क ने भी रात को सुस्ताने का मन बना लिया था शायद...तभी रोड पर न हलचल थी न रफ़्तार...सब कुछ एकदम सुस्त था...अचानक नज़र घूमी और कुछ देखने की कोशिश की तोः नज़र आई एक भैंसा गाड़ी और उसपर कुछ गुनगुनाता हुआ किसान कहा जाने वाला एक इंसान... आधी रात को मजे लेकर यूं किसी का मजे में गाना...दुनिया से बेखबर होकर...बड़ा अचरज हुआ...अगर गाँव होता तोः महीने भर का मसाला लोगों को मिल गया होता..भैंसा गाड़ी का यूं आधी रात को खेतों पर निकलना जरूर मसाला होता गाँवों की चौपालों में...किसी को भूत, किसी को प्रेत तोः किसी को जिन्न... इन्ही मासूमों में नज़र आता...कुल मिलकर भैसा और उसका मालिक जरूर चर्चा का विषय होते चौपालों और दालानो में...यहाँ भी भाग्यशाली था भैसा गाड़ी का मालिक की किसी पारखी चैनल के पत्रकार की नजर उसपर नही गई वरना यहाँ भी इस गरीब को चैनलों की सुर्खियाँ बनते कितनी देर लगती...कोई इसे भूत बनाता, कोई प्रेत तोः कोई कुछ...अचरज नही की किसी को आरुशी का हत्यारा ही इसमे नजर आ जाता... लेकिन पिछले जन्मों के पुण्य का फल शायद इसे मिला की आधी रात को इसका निकलना किसी की चर्चा का मुद्दा नही बना...हाँ इस नामुराद भैंसे और इसके मालिक के आधी रात को यूं खेतों में निकलते देख मैंने गाड़ी के मालिक से सवाल जरूर ठोंक मारे...की आधी रात को क्या तुम्हे लुटने का डर नही है, क्या अँधेरा तुम्हे डराता नही आदि आदि...जाहिर है उस गरीब के सवाल वही....दिन में वक्त नही मिलता, और गर्मी मुझे भी लगती है...कमाई के लिए नौकरी जाना पड़ता है और खेतों में जुटने की पारी रात को ही शुरू होती है...न सवाल ख़ास थे न उनके जवाब....पर आधी रात को गाड़ियों और भीड़ से भरे शहर में गुनगुनाते हुए भैसा गाड़ी के मालिक से बेतहाशा ईर्ष्या हुयी...उस वक्त और भी जब उसने बताया की मैं रोज यूँही गुनगुनाते हुए खेतों से चारा लाता हूँ..अपने जानवरों के लिए...जाहिर है उसके लिए न रात अजनबी थी, न उसकी ठंडक और न उसका जीवन और नियति भी नही...शायद तभी आधी रात उस किसान के लिए न सोने का बहाना थी, न शराबखाने के धुएं में खोने की कड़ी और न ही लफ्फाजियों में जाया करने की चीज...उसके लिए रात एक नियति थी जिसे खुशी-खुशी स्वीकार करने में एक अदद भैसा गाड़ी के मालिक को कोई हर्ज न था...जाहिर है रात के अंधेरे के साथ खुशी-खुशी जीना उस किसान ने सीख लिया था और यही थी उसके गुनगुनाने की वजह आधी रात को बेवजह.......और मुझे आजकी रात का सबक मिल चुका था...
हृदयेंद्र

1 comment:

सतीश पंचम said...

तीसरी कसम में रेणुजी ने कहा है न..
फटा कलेजा, गाओ गीत,
दुख सहने का ये ही मीत।
पहली बार आया, अच्छा लगा...जारी रखें।

फुहार

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प्यार करता हूँ सबसे, आपकी कोई भी मदद बिना नफा नुक्सान सोचे कर दूंगा, अपने गुस्से से बहुत डर लगता है, हमेशा कोशिश रहती है की बस ''गुस्सा'' न आये मुझे, लोग मुझे बहुत अच्छे दोस्त, शरीफ इंसान और एक इमानदार दुश्मन के तौर पर याद रखते हैं, एक बार दुश्मनी कीजिये, देखिये कितनी इमानदारी से ये काम भी करता हूँ,