Sunday, December 7, 2008

एक बीमारी का जाना दूर बहुत दूर...

अक्सर वर्क प्लेस में सहयोगी कहे जाने वाले असहयोगियों को झेलना ज्यादातर की या तो मजबूरी होती है या फ़िर आदत...लेकिन हो न हो... ज्यादातर लोग इस दिक्कत से दो चार जरूर होते हैं...ऐसी ही एक दिक्कत से छुटकारा पाने के चलते फील गुड का एहसास कर रहा हूँ, संस्थान के परम कमीने असहयोगी के ऑफिस में न होने से आपकी कार्यक्षमता का असल अंदाजा तभी लगता है..हर ऑफिस की तरह शायद हम सबों के बुरे कर्मो का फल इन महोदय के साथ के रूप में मिला, और अपनी कमीनगी से इन महोदय ने न सिर्फ़ पूरे ऑफिस की थोक में गालियाँ खायी बल्कि ढेर सारी बद्दुआएं भी साथ लेते रहे, लेकिन भला हो इनके घटिया संस्कारों का की महाशय अपनी कमीनगी से इंच भर भी नही हटे और दूसरो के लिए हमेशा परेशानी का सबब बने रहे...आज वाकई हम सुब उस फर्क को महसूस कर रहे हैं जो एक घटिया और कमीने इंसान के अपने बीच न होने से होता है...आख़िर दुनिया को सच और सही रास्ते का ज्ञान देने का ख़म ठोंकने वाले एक अदना से जानवर कहलाने वाले इंसान से डर जाएँ, सुनने में अजीब लगता है, लेकिन सच है..दरअसल हर ऑफिस की यही कहानी है और हर कहीं हम ऐसे घटिया और निकम्मे जानवरों से लड़ने में ना जाने कितनी उर्जा बरबाद करते हैं, क्या किसी ऑफिस में या किसी कंपनी में ऐसे तत्वों से निपटने के लिए कोई योजना बनाई जायेगी ताकि ऑफिस के ज्यादातर लोगों की उर्जा को बरबाद होने से बचाया जा सके...( जानकारी के लिए ये भी की महिलाओं पर कार्यक्रम बनाने वाले चैनल को अपनी नकारात्मक उर्जा और कमीनगी से सराबोर करने के लिए महान आत्मा पदार्पण कर चुकी है, ऐसे में अपनी पूरी सहानुभूति उस चैनल के कर्मठ काम करनेवालों के प्रति रखते हुए, उन सभी के सुखद जीवन की कामना और उस महान आत्मा को धन्यवाद के साथ (हमारा पीछा छोड़ने के लिए) और इश्वर से ऐसी दुरात्माओं को बनाने के लिए घोर शिकायत के साथ ...पुनश्च

''हृदयेंद्र''

समझ नही आता

मौसम का कुछ यूँ रंग बदलना
इंसानों की तरह,
समझ नही आता
इंसानों का रंग बदलना इन्द्रधनुष सा
समझ नही आता
बरसना बेमौसम में
जज्बातों का
समझ नही आता
गर्मी और सर्दी के बीच का इतना लंबा फासला
समझ नही आता
दोस्त कहकर भी दुश्मन सा बने रहना
समझ नही आता
अगर आपको आ जाए समझना तो
जरूर समझाइएगा
समझना चाहता हूँ
जिंदगी की उलझनों को

''हृदयेंद्र''
८.१२.०८

Sunday, October 19, 2008

आना घर में नए मेहमान का....

यूँ तो घर है तोः मेहमानों का आना-जाना लगा रहता है, मेहमान ख़ास हो तोः उसके आने की खुशी भी कुछ ज्यादा होती है, कुछ ऐसी ही ख़ास मेहमान की मेहमाननवाजी में इन दिनों जिंदगी का थोड़ा वक्त कट रहा है, नई मेहमान ऐसे यूँ बिना बताये आएँगी कमसे कम उम्मीद नही थी, पर अब इनका आना कुछ यूँ है की इनके फिर कभी ना जाने की ख्वाहिश जरूर दिल में हैं, एक दिन अपने कमरे से निकलकर सोफे पर सुस्ताने के मकसद से जब बैठने चला तो देखा की बेहद नाजुक, भोली भाली दो आँखें कुछ कहना चाह रही थी, इशारा साफ़ था की मियाँ जिस सोफे पर आप अपनी कमर सीधी करने आए हैं उसपर पहले से ही मेरा यानी उन खातून का कब्जा है, आँखें मिली, दिल तक बात गई और फिर सिलसिला आपका नाम क्या है तक जा पहुँचा, जाहिर है खातून इतनी आसानी से नाम कहाँ बताती हैं और उम्र भी इतनी की बस चलना भर या यूँ कहें की फुदकना भर सीखा है, हर रिश्ते में और और रिश्तेदार का कोई नाम न हो तो मजा नही आता, कुछ यही सोचकर मैं इन मोहतरमा का नाम भी रख दिया है, नाम भी ऐसा वैसा नही अदिति है इनका नाम, वैसे दुनिया के सबसे बड़े जानवर यानि की हम इनको जानवर कहते हैं और मजेदारी देखिये गैर बिरादरी का होने के बावजूद हम इन्हे मामा, मौसी और न जाने किन रिश्तों में अपनी सहूलियतों के मुताबिक जोड़ भी लेते हैं, वैसे अदिति भी मेरी मौसी के खानदान से हैं यानि मेरी मौसी की बेटी, इस नाते मेरी बहन भी हुयी, ( बिल्ली हमारी मौसी ही है, अगर मैं ग़लत नही हूँ तोः) और बहन की मेहमाननवाजी में कमी होः मुझे बर्दाश्त नही है, तोः इन दिनों अदिति की खातिरदारी और उनसे रिश्तों कोई और मजबूत बनाने की जद्दोजहद चल रही है, वो है की मेरी बातों पर बड़ी आसानी से यकीन करने को तैयार नही और मैं हूँ की इंसानियत पर हजार दाग लगने के बावजूद शर्मशार नही),
दरअसल इंसानों से दोस्ती करके कबका मन भर गया है इसीलिए कभी दादा जी के गाँव में गाय, कभी भैस और कभी घोडों से दोस्ती कर ली, और राहत इस बात की रही की कभी इनसे दोस्ती के बदले धोखा और फरेब नही मिला, हमारी प्यारी पार्वती गाय ने हमेशा माँ जैसा दुलार दिया तो चेतक ने पीठ पर लादकर गाँव के खेतों और पगडंडियों का रास्ता बखूबी दिखाया, एक दोस्त की तरह हर बार रास्ता सही पकडाया भले दुश्वारियां कितनी रही हों, फ़िर पिल्लू ने मुझे सौभाग्य दिया एक बेटी का बाप बनने का, पिल्लू यानि जिसका खून धरम पाजी अक्सर फिल्मों में पी जाते हैं, वही पिल्लू, एक पिता हूँ मैं और मुझे हमेशा अपनी बेहद गुस्सैल और समझदार बेटी पर गर्व होता है, इन सबका साथ जिंदगी की आपाधापी में पता नही कहाँ छूट गया लेकिन पता नही इंसान कहलाने वाले जानवरों को आज भी दोस्त बनाने का मन नही करता है, बल्कि जानवर कहलाने वाले इंसानों की तरफ़ हमेशा मन भागता है, उनसे दोस्ती को, प्रेम को और मेहमाननवाजी को, खैर...........
इस बीच शहर बदला लेकिन अपने पुराने दोस्तों का भरोसा और उनका प्यार था की मन यहाँ भी उनसे या उनके छूट गए रिश्तेदारों से ही मिलने का करता है, तभी मौका मिलने पर छोटा चेतन को दोस्त बना लेता हूँ या फिर अदिति से दोस्ती का हाथ बड़ा देता हूँ, दरअसल इनसे दोस्ती पर एक यकीन जरूर कायम रहता है की इस दोस्ती की मुझे कोई कीमत नही चुकानी पड़ेगी और थोड़े से प्यार के बदले बेहिसाब प्यार का भरोसा भी टूटने वाला नही है तभी तो हर बार और बार बार मन किसी अदिति और किसी चेतन को इधर उधर खोजता रहता है, फिलहाल मैं अदिति की सेवा में व्यस्त हूँ मुझे disturb न किया जाए....और हाँ अदिति से इतनी इल्तजा भी कर रहा हूँ की ....
अदिति, हंस दे, हंस दे, हंस दे, हंस दे तू जरा, कभी तो बस थोड़ा-थोड़ा-थोड़ा मुस्कुरा.....
फिलहाल कोशिश जारी है अदिति के मुस्कुराते ही आप सबको ख़बर की जायेगी तब तक के लिए नमस्कार.....
हृदयेंद्र

Saturday, June 21, 2008

नसों से रिसते दर्द की दास्ताँ...

If you have a function/party at your home and if there is excess food available at the end, don't hesitate to call 1098 (only in India) - child helpline They will come and collect the food Please circulate this message which can help feed many children PLEASE, DON'T BREAK THIS CHAIN.... 'Helping hands are better than Praying Lips'। Pass this to all whom you know and whom you dont know as well
मीडिया के बेहद करीबी मित्र हैं नितिन श्रीवास्तव, इस वक्त इंडिया न्यूज़ चैनल के प्रोड्यूसर हैं, पिछले कई वर्षों से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हैं तोः इस मीडिया की जरुरी दिक्कत वक्त की कमी के शिकार हमेशा रहते हैं, इसकी वजह से मुझे भी अक्सर वक्त नही दे पाते और मेरे कोप का भाजन बनते रहते हैं, कई बार बरास्ते मेल और फ़ोन मेरे कठोर वचन सुनते रहते हैं, बेहद गहरी आंखों की गहराई से मुझे देखकर सिवाय हंस देने के इनके पास कभी कोई चारा नही रहता, मेरे गुस्से को सही जगह लगाने के लिए अक्सर कुछ बेहतर चीजें और पंक्तियाँ मुझे मेल करते रहते हैं ताकि अपना दिमाग ठिकाने रख सकूँ, मीडिया में मेरे तमाम शुभचिंतकों की तरह हमेशा अच्छी और सबसे बेहतर सलाह देते रहते हैं...
आज सुबह भी नितिन की मेल आई, इनबोक्स में मेल देखते ही राहत हुयी की कुछ बेहतर ही होगा पदने लायक, सब काम ख़त्म करके नितिन की मेल पदने का मन बनाया, उस वक्त मुझे भी एहसास नही था की नितिन की मेल देखकर मेरी रूह कांप जायेगी, वैसे रूह कितना कापी कितना तकलीफ हुयी इसका पैमाना तोः नही था लेकिन तस्वीर ने जो कहा वो बहुत दुखदायी था, एक तरफ़ मौर्या शेरेटन और लुटियन की दिल्ली की भव्यता दूसरी तरफ़ संवेदनाओं को भी चरम तक चोट पहुंचाने वाली घोर गरीबी...दरअसल मेल में एक भूख से जर्जर हुए और जिन्दा रहने के लिए जद्दोजहद करते बच्चे की तस्वीर थी जो अन्न का एक टुकडा पाने के लिए संघर्ष करने में जुटा था, तस्वीर को देखकर जो होना था वह तोः हुआ ही लेकिन इस बीच एक संकल्प जरूर बेहद मजबूती के साथ मन में उपजा, की कम से कम अन्न की बर्बादी और दिखावे का नंगा नाच करने से जीवन में जितना बचा जा सके बचने की जरुर कोशिश करूँगा...यही है वो तस्वीर और येः है एक जरुरी जानकारी जो देश की बहुत सी भूखी आत्माओं को तृप्त कर सकेगी हमारे और आपके सहयोग से...
मेरी और शायद मुझ जैसे तमाम इंसान कहे जाने वाले लोगों की आत्माओं को अरसे बाद इस कदर झकझोरने के लिए नितिन को साधुवाद..इस तस्वीर के साथ कुछ शब्द लिखे हैं जिनका मतलब है इस कड़ी को टूटने न दें, तोः यही अपील की इस कड़ी को संवेदनाओं और इंसानियत के मापदंडों पर रखकर इसे टूटने न दें...
पत्रकारों की संवेदनशील जमात में खड़ा होने के लिए नितिन मेरी तरफ़ से साधुवाद, तुमने जो जीवन भर किया है उन्ही तर्कों,विचारों और सिद्धांतों पर कायम हो ये कम से कम मेरे लिए राहत की बात है...
''हृदयेंद्र''





Monday, June 16, 2008

आधी रात को भैंसा गाड़ी...

पता नही आवारागर्दी की आदत है या नई चीजें एक्सप्लोर करने की धुन या पता नही क्या...रात १२.३५ पर गाड़ी उठाकर शहर का मिजाज देखने निकल पड़ा...अभी टोल ब्रिज के अलसाते हुए सुरक्षा गार्डों और कर्मचारियों के दर्द को थोड़ा बहुत महसूस करने की कोशिश कर ही रहा था की...अचानक नज़र टोल रोड के बगल में खेतों पर चली गई...आधी रात और घुउप अँधेरा कहीं कुछ नज़र नही आ रहा था रात की स्याही हर कुछ काला कर देना चाहती थी...इधर सड़क ने भी रात को सुस्ताने का मन बना लिया था शायद...तभी रोड पर न हलचल थी न रफ़्तार...सब कुछ एकदम सुस्त था...अचानक नज़र घूमी और कुछ देखने की कोशिश की तोः नज़र आई एक भैंसा गाड़ी और उसपर कुछ गुनगुनाता हुआ किसान कहा जाने वाला एक इंसान... आधी रात को मजे लेकर यूं किसी का मजे में गाना...दुनिया से बेखबर होकर...बड़ा अचरज हुआ...अगर गाँव होता तोः महीने भर का मसाला लोगों को मिल गया होता..भैंसा गाड़ी का यूं आधी रात को खेतों पर निकलना जरूर मसाला होता गाँवों की चौपालों में...किसी को भूत, किसी को प्रेत तोः किसी को जिन्न... इन्ही मासूमों में नज़र आता...कुल मिलकर भैसा और उसका मालिक जरूर चर्चा का विषय होते चौपालों और दालानो में...यहाँ भी भाग्यशाली था भैसा गाड़ी का मालिक की किसी पारखी चैनल के पत्रकार की नजर उसपर नही गई वरना यहाँ भी इस गरीब को चैनलों की सुर्खियाँ बनते कितनी देर लगती...कोई इसे भूत बनाता, कोई प्रेत तोः कोई कुछ...अचरज नही की किसी को आरुशी का हत्यारा ही इसमे नजर आ जाता... लेकिन पिछले जन्मों के पुण्य का फल शायद इसे मिला की आधी रात को इसका निकलना किसी की चर्चा का मुद्दा नही बना...हाँ इस नामुराद भैंसे और इसके मालिक के आधी रात को यूं खेतों में निकलते देख मैंने गाड़ी के मालिक से सवाल जरूर ठोंक मारे...की आधी रात को क्या तुम्हे लुटने का डर नही है, क्या अँधेरा तुम्हे डराता नही आदि आदि...जाहिर है उस गरीब के सवाल वही....दिन में वक्त नही मिलता, और गर्मी मुझे भी लगती है...कमाई के लिए नौकरी जाना पड़ता है और खेतों में जुटने की पारी रात को ही शुरू होती है...न सवाल ख़ास थे न उनके जवाब....पर आधी रात को गाड़ियों और भीड़ से भरे शहर में गुनगुनाते हुए भैसा गाड़ी के मालिक से बेतहाशा ईर्ष्या हुयी...उस वक्त और भी जब उसने बताया की मैं रोज यूँही गुनगुनाते हुए खेतों से चारा लाता हूँ..अपने जानवरों के लिए...जाहिर है उसके लिए न रात अजनबी थी, न उसकी ठंडक और न उसका जीवन और नियति भी नही...शायद तभी आधी रात उस किसान के लिए न सोने का बहाना थी, न शराबखाने के धुएं में खोने की कड़ी और न ही लफ्फाजियों में जाया करने की चीज...उसके लिए रात एक नियति थी जिसे खुशी-खुशी स्वीकार करने में एक अदद भैसा गाड़ी के मालिक को कोई हर्ज न था...जाहिर है रात के अंधेरे के साथ खुशी-खुशी जीना उस किसान ने सीख लिया था और यही थी उसके गुनगुनाने की वजह आधी रात को बेवजह.......और मुझे आजकी रात का सबक मिल चुका था...
हृदयेंद्र

Saturday, June 7, 2008

दिलों को जीतने का फन यानी चेतन...

जल्द ही एक ख़बर छपी थी अख़बारों में...राहत देने लायक...अरसे से सुस्त पड़े भारत के प्रकाशन उद्योग को एक शख्स ने हिम्मत दी है...नाम है...चेतन भगत...ख़बर भारत के प्रकाशन उद्योग की पतली होती हालत पर थी...ख़ुद को दुनिया के सबसे बडे ज्ञानियों में शुमार करने वाले भारत के साहित्यकारों की कलम में न इतनी ताकत बची है और न कूवत की उनको देश के एक लाख पाठक भी पद सकें...आज के जमाने में जब हर कोई दुनिया का सबसे ज्ञानवान साहित्यकार और कलमकार होने के दिखावे में जुटा है तोः येः आंकडा वाकई कहानी की असल सच्चाई बयान करता है...जाहिर है हिन्दी साथ ही अंग्रेजी और दूसरी भारतीय भाषा के किसी फुल टाइम साहित्यकार की इतनी कूवत नही है की उनकी कहानी या रचना को पचास हजार लोग भी पढ़ सकें...जाहिर है इस बार भी सच्चाई अपने सबसे तल्ख़ रूप में सामने है...क्या अजब दुर्भाग्य है की दुनिया पलटने, क्रांति करवा देने, सर्वहारा की लड़ाई के अकेले प्रतिनिधि होने का दावा करने और प्रगतिशीलता के सबसे बड़े लम्बरदारों को आम जन और आम पाठक ने सिरे से नकार दिया है...भले कुछ लोग या एक वर्ग को ये खोखले साहित्यकार अपनी लफ्फाजियों से बरगला लें लेकिन पाठक को भ्रमित कर पाना इनके लिए आसन नही रहा...बड़ा हास्यास्पद लगता है जब दुनिया में क्रांति कर देने वाले और दूसरो को आदर्शों का पाठ सिखाने वाले साहित्यकार अपनी रचना की रोयाल्टी के लिए प्रकाशकों के चक्कर लगाते लगाते दुनिया से रुखसत हो लिए...जाहिर है एक अदद धाकड़ साहित्यकार की कमी का नतीजा था की साहित्यकार प्रकाशकों के चम्पू से ज्यादा कुछ नही रहे...खासकर अपने हिन्दी वाले तोः और भी बेचारी हालत में हैं...हंस, कथादेश और इस जैसी तमाम पत्रिकाएं एक अदद विज्ञापन को तरसती हैं...विज्ञापन न मिलने की दशा में अपने दिमागी साहित्यकार येः तर्क गढ़ते हैं की बाजार के दबाव में आए बिना हम पत्रिका निकलना चाहते थे इसलिए हम विज्ञापनों से अपनी पत्रिका को दूर रखते हैं...दरअसल इसके पीछे का मनोविज्ञान सामने लाना चाहता हूँ...अगर आपकी स्वीकार्यता है तोः बाजार भी आपको स्वीकार करता है...(बाजार कोई हव्वा या दूसरे ग्रह से आई चीज नही है)...आम पाठक द्वारा अस्वीकार किए जाने और बुरी तरह पिटने के बावजूद भी येः अखबार, पत्रिकाएं और इनके तंगदिल करता धरता इस मुगालते में ही जीना पसंद करते हैं की हम सबसे बेहतर हैं...चाहे पाठक हमें पसंद करे या न करे लेकिन हम तोः अपना अजेंडा लिखने में चलाते रहेंगे...
खैर....येः दास्ताँ बहुत लम्बी है....लेकिन...साहित्य जगत में वाकई अगर किसी इंसान ने हलचल मचाई है तोः वोः है चेतन भगत...एक गैर साहित्यकार का इस तरह साहित्य की दुनिया में आना और भारत का बेहतरीन लेखक बन जाना बहुत कुछ कह जाता है...हाल येः है की चेतन की हालिया प्रकाशित किताब Three mistakes of my life… की दो लाख प्रतिया बाजार में आने से पहले ही बुक हो चुकी हैं ऐसा नही है की अंधे के हाथ कोई बटर लग गई हो..उनकी पहली किताब five point some one… भी ६ लाख का आंकडा बिक्री में पार कर चुकी है और इसकी मांग लगातार जारी है...चेतन की दूसरी किताब one night at call centre… का भी लगभग यही रेकार्ड रहा...उनको न अपनी रोयाल्टी के लिए किसी प्रकाशक के सामने रिरियाना पड़ता है और न ही प्रकाशक उन्हे तंग करने का साहस करता है...ऐसा नही है की चेतन कोई क्रांतिकारी लेखक हैं या विद्वान् बल्कि इस लेखक ने अपनी किताब पढने से पहले पाठक को बेवकूफ समझने की भूल नही की और न ही अपनी सनक को सब पर थोपने की कोशिश...सीधी, इमानदार और नौजवानों को समझ आने वाली भाषा और लेखन का नतीजा क्या हो सकता है उसकी कहानी आंकडे ख़ुद बयान करते हैं....वाकई हिन्दी के लेखकों के लिए ये सपना ही है और रहेगा...इन तीनो किताबों की खासियतें अगर देखें तोः इनकी भाषा भी है...बेहद सरल अंग्रेजी में लिखी येः किताबें खुशी, रोमांच, गुस्सा और भावनाओं को बेहद सलीके से छूती हैं...इसका अंदाजा मुझे उस वक्त भी मिला जब मैं देश के विभिन्न हिस्सों में घूमा और वहाँ की तरक्की पसंद नौजवान पीढ़ी से मिला...सबको चेतन का लिखा खूब पसंद आया...इस सबके बीच जिस सवाल का जवाब मुझे चाहिए था वह भी मिला जवाब था की जब तक पाठक की पसंद को जाने बिना लेखन किया जायेगा उसका हश्र अपने हिन्दी के लेखकों जैसा ही होगा....आज शायद ही हिन्दी का कोई लेखक अपनी लेखनी के दम पर १०००० पाठकों को अपनी किताबें पढ़ा सकता हो...जनसत्ता का बुरी तरह फ्लॉप होना, कुछ फटीचर किस्म के साहित्यकारों तक ही हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं का सिमट जाना...हिन्दी और विचारों को ख़ुद की संपत्ति मानने वाले साहित्यकारों के मुंह पर करारा तमाचा है...आज भी देश के सबसे बडे मध्य वर्ग और सबसे बडे तबके युवा वर्ग के बीच गैर साहित्यकारों की कृतियों का बेस्ट सेलर होना अगर कुछ कहता है तोः हिन्दी के झंडाबर्दारों की असफलता की कहानी...रोबिन शर्मा की the monk who sold his ferrari…का घर-घर में लोकप्रिय होना भी इसी कड़ी का एक हिस्सा भर है...मैं अक्सर जेएनयू और india habitat centre… में गावों और शहरों से आने वाले नौजवान साथियों को देखता हूँ जो ख़ुद को बुद्धिजीवी साबित करने के लिए बेसिर पैर के विचारों से लैस होते हैं..उनकी प्रासंगिकता को जाने बिना घंटों व्यर्थ के वाद-विवाद में उलझने से भी उन्हें गुरेज नही है...बाजार ने समाज, साहित्य, विचार और लोगों की प्राथमिकताओं को बदला है इससे भी इन गरीब बुद्धिजीवियों को कोई लेना देना नही है अफ़सोस यही कथित बुद्धिजीवी बाद में लेखक का जामा पहनते हैं और लेखन की दुनिया में प्रकाशकों की बहुत सी स्याही और कागज़ के ढेर बरबाद करके हिन्दी और हिन्दी साहित्य का जनाजा निकालते हैं...आज हिन्दी के किसी साहित्यकार की इतनी हैसियत नही है की वो इन नौसिखिये लेखकों का मुकाबला तक कर सके... जाहिर है विचारों के प्रपंच से कुछ लोगों को ही बेवकूफ बनाया जा सकता है....ज्यादातर को नही...जाहिर है चेतन भगत और इन जैसे लेखक उम्मीद बंधाते हैं और एहसास भी की नए भारत और नए दौर को समझने का दम अंग्रेजीदां कही जाने वाली पीढ़ी के गुमनाम से नौजवानों में है और येः अपने लिखे से अच्छे अच्छे साहित्यिक माफियाओं को उनकी हैसियत का एहसास कराने में सक्षम हैं...तोः इन युवा तुर्को और इनकी काबिलियत को सलाम किया जाए और हिन्दी के कथित साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को थोडी सी शर्म भेजी जाए बुरी तरह से इन नौसिखिये कलमकारों के हाथों पिटने के लिए....
हृदयेंद्र

Sunday, May 25, 2008

ऍम जे अकबर भी ब्लोगिंग के मैदान में...

कल और आज अपनी बेहतर पत्रकारिता और सच को सबके सामने लाने का जज्बा रखने वाले होअंहार पत्रकार ऍम जे अकबर भी ब्लोगिंग के मैदान में अपनी पूरी उर्जा और तेवर के साथ मौजूद हैं....बहुत कम लोगों को शायद येः बात पता है...अर्से बाद किसी बेहतरीन पत्रकार को यहाँ देखकर वाकई दिली सुकून हुआ...१९७१ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया से अपने करीअर की शुरुआत करने वाले अकबर, १९७६ में रविवार के अंग्रेजी संकरण सन्डे के सम्पादक रहे..उस दौरान अकबर और एस पी सिंहकी जोड़ी ने जो धूम मचाई ...शायद आज तक किसी पत्रकार ने मचाई हो....मैं ख़ुद को उन सौभाग्यशाली लोगों में समझता हूँ जिनको रविवार और सन्डे दोनों अखबार पढने का मौका मिला...मुझे आज भी इन अखबारों का अपने बीच न होना अखरता है...जाहिर है ऍम जे और एस पी की जोड़ी को कई विवादों में भी घसीटा गया..पर अगर आपके पास तेवर हैं तोः उन्हे रोक कौन सकता है...बस यही ऍम जे की खासियत थी....उन खास लोगों में मैं ख़ुद को शुमार करना चाहूँगा जिन्होंने ऍम जे की पत्रकारिता और उसके तेवरों को बेहद करीब से देखा है...हैदराबाद में ऍम जे के डेक्कन क्रोअनिकल के समूह सम्पादक रहते उनके तेवरों को जब करीब से देखा तोः मैने भी ऍम जे होने के मतलब को कुछ-कुछ महसूस करने की कोशिश की....हर चीज पर तेज नज़र..चेहरे पर शालीन सी मुस्कराहट और हर कही ऐसा खोजने की नजर जिसे आम कहे जाने वाले लोग जान पाने से महरूम रह गए हों..हम एक दो बार ही मिले पर हर बार वोः पहले से ज्यादा सहज और सरल नजर आए....दरअसल ऍम जे हमारे बीच उस जमात के प्रतिनिधि है....जो लुप्तप्राय जन्तुओँ की श्रेणी में आती है(अगर गुस्ताखी हो तोः ऍम जे मुझे माफ़ करें)...गंभीरता का बेवजह आवरण पहनकर दूसरो का मूक अपमान करके ख़ुद को बडे पत्रकार की श्रेणी में रखने के लटके-झटकों से कोसों दूर येः शख्स हर बार यही विश्वास बंधाता नजर आया की जब तक ऍम जे हैं... सच उस दौर तक लिखा जायेगा...आज ऍम जे अपने अनुभवों, किताबों और विचारों के साथ ब्लोगिंग की दुनिया में मौजूद हैं...तोः वाकई सुकून और संतुष्टि महसूस होती है की ऍम जे यहाँ भी कुछ तेवर वाली और सबसे ज्यादा सच बात के साथ मौजूद हैं...तोः इस शानदार इंसान और पत्रकार का हमें दिल खोलकर स्वागत करना चाहिए...स्वागत है ऍम जे..हमारे बीच आपका...आप ऍम जे के साथ www.mjakbar.org पर संवाद स्थापित कर सकते है और उनकी नई पत्रिका के धारदार लेखों को भी पढ़ सकते हैं....
हृदयेंद्र प्रताप सिंह

Thursday, May 22, 2008

क्या आप अनुभव माथुर को जानते हैं....

इस सवाल का जवाब ज्यादातर लोग न में ही देंगे, वजह वही पुरानी अनुभव कोई सेलेब्रिटी नही है..मेरा दोस्त है..और हमारी पीड़ी के उन प्रतिभा शाली लोगों में से है..जिन पर एक गर्व करने की कई वजहें हैं...वैसे इन जनाब का थोड़ा परिचय देते चलूँ...देश के बेहतरीन मीडिया संस्थान..आई आई ऍम सी के अंग्रेजी पत्रकारिता के प्रमुख और अपने समय के प्रतिभाशाली पत्रकारों में से एक प्रदीप माथुर साहब के सुपुत्र है और जामिया मिल्लिया से पत्रकारिता में डिग्री होल्डर हैं..जिन प्रदीप माथुर सर की एक कॉल पर नौसिखिये पत्रकारों की नौकरी लग जाती है और दिग्गज पत्रकार जिस इंसान के पैर छूकर ख़ुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं..उस इंसान का बेटा होने के बावजूद अनुभव ने कभी अपने पिता से ख़ुद को नौकरी दिलाने के लिए एक शब्द नही बोला..पत्रकारिता अपनी शर्तों पर करना चाहता था येः इंसान और बेहतर करने के लिए पत्रकारिता में आना चाहता था...जज्बा देखिये इस इंसान का की पिल्पिले पत्रकारों की फौज का हिस्सा बन जाने की बजाय अनुभव ने नए पत्रकारों को पदाने का फ़ैसला किया आज इस इंसान के खाते में देश के टॉप ५० कॉलेज में पदाने का अनुभव है और इस समय अनुभव मलयेसिया के प्रमुख कॉलेज के पत्रकारिता विभाग के छात्रों को तैयार करने में जुटे है...येः तोः रहा अनुभव के अनुभव का छोटा सा इतिहास....
दरअसल अनुभव का जिक्र करने के पीछे वजह सिर्फ़ इतनी है की आज देश की पत्रकारिता के हाल पर बस यूँही दो आंसू बहाने का मन कर रहा था ...तोः सोचा इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है पत्रकारिता के दुर्भाग्य का....की एक बेहतरीन पत्रकार का मन पत्रकारिता के सूरत-ऐ-हाल से इस कदर उचाट हुआ की उसने इस पेशे को दूर से ही सलाम करना बेहतर समझा...दरअसल यही त्रासदी मेरे कई नौजवान और काबिल साथियों की है...सबको पता है की उनके आने से पत्रकारिता का भला होगा...कुछ बेहतर लोग आयेंगे तोः यकीनन पत्रकारिता का वर्तमान रूप बदलेगा..लेकिन त्रासदी यही है की अनुभव और उस जैसे तमाम योग्य नौजवान पत्रकारिता की मौजूदा हालत से इस कदर दुखी हैं की वोः अच्छे पत्रकार के सारे गुन होने के बावजूद पत्रकारिता के पेशे को नही अपनाना चाहते..सच येः भी है की अच्छे पत्रकार चाहिए किसको...मुझे बहुत अच्छी तरह याद है आज के सबसे नामी पत्रकार की बेहद अक्षम और अयोग्य बहन के साथ काम करने का दुर्भाग्य...कैसे वो महान महिला ख़बरों की माँ-बहन करती और चैनल हेड से लेकर हर कोई खबरों को लेकर उस वीरांगना की सोच पर सर पकड़कर बैठते थे आज वही वीर महिला अपने भाई के साथ ख़बरों की दुनिया में कमाल दिखा रही है....ये हाल हर कहीं है...काबिल लोगों ने या तोः पलायन कर दिया है या फिर ख़बरों की दुनिया में उनकी दिलचस्पी न के बराबर है...किसी ने मुझसे कहा था की पत्रकार बन
जाने के लिए बहुत योग्यता की जरूरत नही होती...आज उस इंसान की बात बेहद सही लगती है...पर इन सब के बीच अनुभव तुम्हारी याद बहुत आ रही है दोस्त...फ्रेम को लेकर..आइडिया को लेकर और ख़बरों को लेकर तुम्हारी समझ का मैं तोः क्या कोई भी कायल होता..आज तुम पत्रकारिता में होते तोः वाकई देश को एक बेहतरीन टी वी पत्रकार मिला होता ..पर अफ़सोस तुम जैसे काबिल इंसान की जरुरत हमारे यहाँ नही है...तुम मेरे दोस्त थे इस नाते इतना सब नही कहा मैने....सिर्फ़ अफ़सोस इस बात पर होता है की अगर तुम होते तोः वाकई टी वी देखने में मजा आता...यार मीडिया से तुम्हारा मन इतना उखडा की तुमने देश ही छोड़ दिया..तुम जरूर वहाँ बेहतर कर रहे होगे और जल्द ही तुम अमेरिका में पत्रकारों को प्रशिक्षित करोगे जैसा की तुम्हारी यौजना है लेकिन इस बीच हम क्या खोयेंगे और टी वी क्या खोयेगा इसका दर्द मुझसे बेहतर कौन जान सकता है दोस्त...मुझे मालूम है की तुम्हारे बारे में कोई नही जानता..लेकिन मैं जानता हूँ..अपनी जमात में तुम्हारे न होने का मतलब...मेरे पास सिर्फ़ अफ़सोस के कुछ नही है...बस तुम्हारा होना इतना दिलासा देता है की..एक दिन तुम दुनिया घूमकर आओगे और मीडिया तुमसे बहुत कुछ लेने के लिए तैयार खड़ा होगा....और तुम उसी बेसाख्ता हँसी के साथ हाथ फैला दोगे अपने नए दायित्य को गर्मजोशी के साथ सीने से लगाने के लिए...वोः दिन आएगा...जल्द ऐसी उम्मीद मुझे है..येः उम्मीद ग़लत भी तोः नही है मेरे दोस्त...फिर हम नई जे जे और सोनू के पीछे लगेंगे और नए आइडिया खोजेंगे...
तुम्हारा नालायक दोस्त
हृदयेंद्र

Tuesday, May 20, 2008

रामशरण हम शर्मिंदा हैं...

मंगलवार का दिन यूं तोः हर रोज की तरह शुरू हुआ ही था, की अचानक आँख चली गई हिन्दुस्तान टाइम्स की दर्दनाक ख़बर पर....ख़बर तोः आम ही थी क्यूंकि कलम घसीटने वालों को किसी के मरने से कोई ख़ास फर्क नही पड़ता..कहते हैं की येः तोः हमारा पेशा है की हमें यूँही भावहीन बने रहना है...संवेदना होने पर भटकने का खतरा है.....पता नही संवेदनहीन होने पर भटकने का खतरा है या संवेदनशील होने पर...येः तोः बड़े-बडे विद्वान् ही बता पायेंगे...पर ख़बर पढने के बाद संवेदनाओं पर काबू रख पाना बेहद मुश्किल लग रहा था अपने लिए...दुखद ख़बर येः थी मेरे लिए की दिल्ली के बी आर टी कारीडोर पर महज ३५०० की नौकरी करने वाले रामशरण को एक बस ने टक्कर मार दी..जिसमे रामशरण की मौत हो गई....जब ख़बर पढी तोः उस बेहद मामूली इंसान के प्रति श्रद्धा ही मन में उपजी....दरअसल रामशरण पहले एक दूकान चलाकर अपने परिवार का पालन पोषण करते थे...दिल्ली में सीलिंग का कहर टूटा और गरीब रामशरण की खुश हाली का साधन उनकी दूकान बंद हो गई...अदम्य जिजीविषा और संघर्ष शील इस इंसान ने हार न मानते हुए अपने प्रयास जारी रखे और बी आर टी में मार्शल की नौकरी शुरू की....बेहद मदद गार और खुद्दार इस इंसान के लिए जिन्दगी ने शायद दुश्वारियाँ कम न करने की कसम खा ली थी और इस शानदार इंसान की जिंदगी के साथ इसके लिए सब कुछ ख़त्म कर दिया....अब उनके परिवार में हैं पत्नी और बच्चे...पत्नी की आंखों में है बड़ा सा शून्य....उनकी पीड़ा को बेहद दर्दनाक तरीके से बयान करता हुआ....हजारों सवाल....अब क्या होगा ...न तोः रामशरण किसी पार्टी के कार्यकर्ता थे और न हरकिशन सुरजीत की....मनमोहन से लेकर आडवाणी तक उनके परिवार को दिलासा देने जाएँ...येः अलग बात है की उनका योगदान कहीं से भी सुरजीत से कम रहा हो ऐसा कोई समझदार आदमी नही मान सकता...लोगों को बिना किसी फायदे के सड़क पार करना, उन्हे जानकारी देना और हर वक्त उनकी मदद के लिए तपती धुप में एक मुस्कराहट के साथ खडे रहना...इससे बड़ा योगदान इंसानियत की तराजू पर क्या हो सकता है? किसी पर फर्क पडे न पडे...मुझ पर और मुझ जैसे कई लोगों को दर्द हुआ, अपने तरीके से मदद भी करूँगा पर...जिस दिलेरी से रामशरण जिन्दगी के मोर्चे पर लड़ाइयां लड़ रहा था...अब कौन लड़ेगा....उनकी पत्नी को कोई सहारा नही देगा...क्यूंकि वे बेहद आम लोग हैं...दाल चावल खाकर सो जाने वाले...वो आदमी दिलेर था, जांबाज था...मन कहता है....आख़िर बेहद आसान था उसके लिए चोरी करना, गाडियाँ लूटना और जेब काट लेना....क्यूंकि भले बने रहना बेहद मुश्किल है..और अपनी लाख दुश्वारियों के उस इंसान ने भले बने रहना ही चुना....उम्मीद है उनके परिवार तक हमारी संवेदनाएं पहुंचे और ईश्वर उनके परिवार को एकजुट कर सके...अंत में उनके जज्बे को सलाम करते हुए ....अपनी असीम संवेदनाओं के साथ
हृदयेंद्र
(इस पूरे मामले में दुखद येः था की अपने आप को किसी से कम न मानने वाले हिन्दी अखबारों में से सबने लगभग हाशिये पर रामशरण की मौत को रखा...कहीं तोः येः ख़बर छापी ही नही और जहाँ छापी वहाँ बस खानापूर्ति कर दी गई....किसी ने उस इंसान के जज्बे को दुनिया के सामने लाने की कोशिस नही की...एक पत्रकार कहलाने के नाते फिर एक बार अपने पेशे पर शर्म आई...लेकिन पता नही येः शर्म कितनों को आई होगी...उम्मीद है हमें इस गलती के लिए रामशरण की आत्मा कभी माफ़ नही करेगी...)

Sunday, May 18, 2008

उन साथियों के लिए जिन्हे अभी बहुत कुछ करना है..पत्रकारिता में

अगर तुम अपना दिमाग ठीक रख सकते हो जबकि तुम्हारे चारों ओर सब बेठीक हो रहा हो और लोग दोषी तुम्हे इसके लिए ठहरा रहे हों...अगर तुम अपने उपर विश्वास रख सकते हो जबकि सब लोग तुम पर शक कर रहे हों..पर साथ ही उनके संदेह की अवज्ञा तुम नहीं कर रहे हो..अगर तुम अच्छे दिनों की प्रतीक्षा कर सकते हो और प्रतीक्षा करते हुए उबते न हो..या जब सब लोग तुम्हें धोखा दे रहे हों पर तुम किसी को धोखा नहीं दे रहे हो...या जब सब लोग तुमसे घृणा कर रहे हों पर तुम किसी से घृणा नहीं कर रहे हो...साथ ही न तुम्हें भले होने का अभिमान हो न बुद्धिमान होने का....अगर तुम सपने देख सकते हो पर सपने को अपने उपर हावी न होने दो, अगर तुम विचार कर सकते हो पर विचारों में डूबे होने को अपना लक्ष्य न बना बैठो...अगर तुम विजय और पराजय दोनों का स्वागत कर सकते हो पर दोनों में से कोई तुम्हारा संतुलन नहीं बिगाड़ सकता हो...अगर तुम अपने शब्दों को सुनना मूर्खों द्वारा तोड़े मरोड़े जाने पर भी बर्दाश्त कर सकते हो और उनके कपट जाल में नहीं फंसते हो...या उन चीजों को ध्वस्त होते देखते हो जिनको बनाने में तुमने अपना सारा जीवन लगा दिया और अपने थके हाथों से उन्हें फिर से बनाने के लिए उद्यत होते हो..अगर तुम अपनी सारी उपलब्धियों का अंबार खड़ा कर उसे एक दांव लगाने का खतरा उठा सकते हो, हार हो या की जीत...और सब कुछ गंवा देने पर अपनी हानि के विषय में एक भी शब्द मुंह से न निकालते हुए उसे कण-कण प्राप्त करने के लिए पुनः सनद्ध हो जाते हो...अगर तुम अपने दिल अपने दिमाग अपने पुट्ठों को फिर भी कर्म नियोजित होने को बाध्य हो सकते हो जबकि वे पूरी तरह थक टूट चुके हों...जबकि तुम्हारे अंदर कुछ भी साबित न बचा हो...सिवाए तुम्हारे इच्छा बल के जो उनसे कह सके कि तुम्हें पीछे नहीं हटना है....अगर तुम भीड़ में घूम सको मगर अपने गुणों को भीड़ में न खो जाने दो और सम्राटों के साथ उठो बैठो मगर जन साधारण का संपर्क न छोड़ो...अगर तुम्हें प्रेम करने वाले मित्र और घृणा करने वाले शत्रु दोनों ही चोट नहीं पहुंचा सकते हों...अगर तुम सब लोगों का लिहाज कर सको लेकिन एक सीमा के बाहर किसी का भी नहीं, अगर तुम क्षमाहीन काल के एक एक पल का हिसाब दे सको.........तो यह सारी पृथ्वी तुम्हारी है...और हरेक वस्तु जो इस पृथ्वी पर है उस पर तुम्हारा हक है....वत्स तुम सच्चे अर्थों में इंसान कहे जाओगे....- रुडयार्ड किपलिंग

चन्द पंक्तियाँ, जो राहत देती हैं....

अपने कई मित्र आह़त होते हैं...खुश होते हैं..बदलते दौर से निराश भी...होना भी चाहिए...मुझे ऐसे में कुछ पंक्तियाँ बेहद राहत देती हैं...मेरे कई अपनों को भी राहत देंगी.... तोः लीजिये पेश-ए-नज़र है....

किरण की इकाई परतिमिर की दहाइयांशगुनो पर फैली हैं काली परछाइयांशक्ति कहीं गिरवी है भक्ति कहीं गिरवी है सौदा ईमानो का श्रद्धा सम्मानों का शंख भी शशंकित हैं सहमी हैं पुरवाइयां.....तोः इस दौर में जब एक चेहरे के भीतर ना जाने कितने चेहरे हैं...जब अपने आसपास शंका का माहौल बना है...कौन बुरा और कौन अच्छा है...पहचानना बेहद मुश्किल है तोः ऐसे में येः पंक्तियाँ मेरे ख़याल से बड़ी मौजूं लगती हैं....है कि नई......और हाँ येः मेरी नही हैं पता नही किस भलेमानुष की हैं...बाकी व्यस्त रहिये मस्त रहिये.....

हृदयेंद्र

क्या आप दौड़ घोडा को जानते हैं.....


बात काफी पहले की है छुट्टियों में अपने गाव जाना हुआ..मेरे बेहद प्रिय हैं नरेश जी...पढे तोः ज्यादा नही पर जागरूक बेहद..देश में राजनितिक सरगर्मी चल रही थी...प्रधानमंत्री कौन बनेगा....लोग अभी नरसिम्हा राव जी का नाम भी याद नही कर पाये थे....नाम का फुल फार्म.. की इतनी में एक और दखनी... आ गए...तोः साहब.नरेश भाई आए और बड़े कौतुहल से मुझसे पूछने लगे...भैय्या सुना है...दौड़ घोडा प्रधानमंत्री बन गए....पहले तोः मैं भी भौचक्का की साहब येः दौड़ घोडा कौन है....फिर जब नरेश भाई ने हिंट दिया तोः उनको छोड़कर हम सबके ऐसे ठहाके लगे की पूछिये मत...फिर उनको बताया गया की वे दौड़ घोडा नही बल्कि देवगौड़ा हैं...वाकई कई कई बार जीवन यूँही बेसाख्ता हंसने का मौका दे देता है...कहने का मतलब सिर्फ़ इतना ही...की बेहद गंभीर और लम्बे लम्बे लेखों विचारों के बीच कभी हलकी फुलकी मुस्कान के लिए भी जगह हो..दरअसल येः सूझी यूं की कई दिनों से लगा हुआ था की कुछ सरल और तरोताजा टाइप की चीज किसी ब्लॉग पर मिल सके..लेकिन भारत में नब्बे फीसद ब्लोग्स पर बडे बडे विचार..चे ग्वेरा से लेकर मार्क्स तक सात्र से लेकर देरिदा तक इन ब्लोग्स पर अपने पिटे और आप्रसंगिक हो चुके विचारों के साथ मिलेंगे...जब मारे शर्म के दूसरो को विकसित कहलाने वाले देशों के ब्लॉग लेखकों की ब्लोग्स पढी तोः वाकई मन बेहद खुश हुआ...वहाँ....मजाक था..भविष्य की चिंता थी...कुछ साझे संकल्प थे...तभी मन में विचार आया की ..अपने यहाँ ऐसा क्यों नही है...ब्लॉग के लिए स्पस मिलने का मतलब है की ज्ञान की सारी गंगा यही बहा देना...चुरा-चुरा के इसकी कविता..उसकी किताब..उसका विचार..सब पेल दो ताकि कहीं से भी येः संदेश ना जाने पाये की आप दूसरो से कम हैं...अभी एक सज्जन हैं..दिव्यान्सू शायद देशबंधु में हैं...बेहद हल्का..मन को राहत देनेवाला लिखा...न कोई बिला वजह का ज्ञान न कोई दिखावा..सब कुछ असल लग रहा था...येः इतना मुश्किल भी तोः नही है....सरल बने रहना ...असल बने रहना...विनम्र बने रहना...और यकीन जानिए हर किसी को येः अच्छा लगता है....पर ऐसी कौन सी मजबूरियाँ हैं की हमने ब्लॉग को भी अपनी कुंठायें निकालने का मंच बना लिया है....कुछ लोंग ब्लॉग के जरिये अपना हित साधने में लगे हैं, कुछ अपने चेले बनाने में...कुछ कुछ और करने में.....कहना सिर्फ़ यही था की यहाँ भी वही गंध फैला रखी है जो पहले अपने अपने समूहों में ही सिर्फ़ फैलाई जाती थी...कभी मौका मिले तोः रीडिफ़ के ब्लोग्स जरुर पढिये....मैं उनका बहुत बड़ा प्रशंशक हूँ..जाइए और तरोताजा होकर आइये....यार जब हम बुश की नीतियाँ नही बदल सकते, जब मार्क्स को कोई नही पूजता ....तोः नया अपनाओ....नयापन लाओ...मजा आएगा...तुम्हे भी और सभी को....तोः साहब कुछ जगह रखिये...जीवंतता के लिए....दूसरो के लिए....बहसों के लिए और हाँ मजे और धैर्य के साथ सुन्न्ने के लिए भी...बाजार, लोकप्रियता चीजों की सफलता, असफलता के बारे में बेहद बारीकी से सोचता हूँ अभी तक सारे अनुमान सही भी निकले तोः लगता है की ब्लोग्स के बारे में भी यही कुछ होगा.....वैसे भी येः ज्यादा दिनों की बात नही है...बंगलोर में गूगल में काम करने वाले साथी के मुताबिक विकल्प पर काम चल रहा है और कुछ दिन बाद येः पुरानी बात हो जायेगी....तोः अपने हित साधने की बजाय इसे हर बेहतर चीज का मंच बनाया जाए.....खूब लिखा जाए...पर सरल और दिलचस्प ...येः मुमकिन हैं....लोंग कोशिश भी कर रहे हैं....और उनको हिट्स भी जमकर मिल रही हैं.....जाहिर है.....पर ज्यादा दिन चोरी के विचारों की गंगा नही बहेगी

हृदयेंद्र

Tuesday, May 13, 2008

अमृत शर्मा का इस्तीफा

अपनी गुरबत के दिनों में एक शख्स से मेरा साबका पड़ा...नाम था अमृत शर्मा...चेहरे पर बेहद ज्यादा फैली हुयी दाढी आँख पर मोटा चश्मा और उसके भीतर से घूरती आँखें...कुल मिलकर अमृत भाई साहब के साथ पहला इन्काउन्टर बेहद खतरनाक हो सकता है किसी के लिए भी...मेरे लिए भी था...संस्थान में मेरे सीनिअर थे तोः पहली बार नजरें मिलने पर मेरी तरफ़ से रेस्पांस तीखा ही था...एक तोः सीनियर उपर से इतना खतरनाक आउटलुक....बाप रे बाप....सोचा एक और खून चूसू आ गया..खून पीने..बस उस दिन का बेसब्री से इन्तजार कर रहा था की कब काम शुरू हो और अमृत शर्मा नामक येः सीनियर मेरा खून चूसना शुरू करे...वैसे सीनियर कहलाने वाले प्राणियों से दूर ही रहना पसंद करता हूँ..पर जीवन में जो होना होता है..होकर रहता है...न चाहते हुए भी वो दिन आया जब हमने शब्दों का आदान-प्रदान किया....बेहद अपनेपन से मिले..बडे भाई सा स्नेह...कई सारी सलाहें और मेरे भविष्य को लेकर कई चिंताएँ...हर अगली मुलाक़ात में अमृत भाई साहब और भी करीब होते गए...अपने काम को सरल कैसे बनाया जाए इसपर भी कई सलाह मुझे मिली...
वक्त गुजरा हम एक सीनियर और जूनियर की बजाय बडे और छोटे भाई ज्यादा लगते...वक्त का पहिया घूमा मैने संस्थान छोडा तरक्की हासिल की...और मेरी हर तरक्की पर अमृत भाई साहब खुश होते पहले से भी ज्यादा साथ में बेहद काम की सलाह भी देते....
सबकुछ मजे में चल रहा था की अचानक एक रात फ़ोन आया की अमृत शर्मा ने इस्तीफा डे दिया...बेहद चंचल और मजेदार इंसान, मेहनतकश, काम को कभी भी काम की तरह न करने वाले इस इंसान को इस्तीफा देने की क्या जरुरत आन पड़ी....जब जाना तोः वही..पुरानी कहानी, किसी के अहम् की भेंट एक इमानदार इंसान की नौकरी चढ़ गई...न अमृत शर्मा कोई सेलेब्रिटी हैं और न बडे पत्रकार की उनके इस्तीफे पर कोई हांयतौबा मचे लेकिन दुनिया को सही और सच दिखाने का दावा करने वाली बिरादरी का सच इतना वीभत्स क्यों है....जवाब शायद ही किसी के पास है...कितने और मेहनतकश अमृत शर्मा ताकतवर ठेकेदारों के अहम् की भेंट चढ़ जायेंगे इसका किसी के पास कोई जवाब है क्या?
हृदयेंद्र

Monday, May 12, 2008

अपनी संवेदना के साथ....

अभी हमारे पड़ोसी बर्मा में नरगिस आया....नाम बेहद खूबसूरत पर रूप बेहद क्रूर...एक साथ करीब २४ हजार लोगों की जान ले ली..४५ हजार लापता...विपदा, संकट,त्रासदी..क्या कहें इसे...एक भयानक सा कुछ है...कुछ कुरूप सा...जिसे कोई दुबारा होते नही देखना चाहेगा....पहली ही बार कौन देखना चाहता था..पता नही कौन सा आवेग आता है प्रकृति को और उसका गुस्सा कुछ मासूमों पर निकल जाता है...क्या बिगाडा था दोलमा ने किसी का, सान्ग्ग्कू ने भी किसी का क्या बिगाडा था....बस उसने तोः अभी दुनिया देखनी ही शुरू की थी और उस नन्हे फूल को एक भयानक आंधी पता नही कहाँ ले गई अपने साथ..बिना कुछ सोचे की अभी उसे माँ के पास भी जाना है...आख़िर प्रकृति इतनी गैर जिम्मेदार तोः नही हो सकती...लेकिन बहुत सारे किंतु-परन्तु के साथ अब हिस्से में आया है रोना....सबके...हमारे भी...सिर्फ़ अपनी संवेदनाओं के साथ अपने पडोसियों के साहस को सलाम करते हुए इतना ही की...
तुम्हे पता नही था की त्रासदी यूं आएगी
चुपचाप
तभी अपने घर के आँगन में तुम लेटे थे बेहद आश्वस्त
तुम खुश थे
अपने परिवार के साथ
अब तुम्हारे पास
कहने के लिए बहुत कुछ नही बचा
न घर, न परिवार
न किलकारियाँ
लेकिन
तुम फिर से हंसोगे वायदा है मेरा
क्यूंकि तुम टूटे हो, अभी हारे नही
तुम्हे हँसना होगा....उस माँ के लिए जो अकेली है
उस बेटे के लिए जिसका कोई नही है
उस बहन के लिए जिसके सपनो को सिर्फ़ तुम सच कर सकते हो...
मैं कुछ नही कहूँगा
न संवेदना दूंगा
न दिलासा
क्यूंकि
तुम्हारी पीड़ा का इलाज नही है मेरे पास
मेरे पास हैं कुछ बेहद छोटे से शब्द
तुम्हारे प्रति सम्मान के, आभार के और प्यार के
उम्मीद है तुम्हारे नए जीवन के लिए ये काम आयेंगे...
तुम्हारा
''मैं''

Saturday, May 10, 2008

नमन माँ....

प्रिया माँ,
रविवार को मदर्स डे है....हर साल होता है ..इस साल भी...जाहिर है जब टीवी, रेडियो, विज्ञापन पर हर वक्त माँ की ममता की कहानियां सुनाई जा रही हैं...तोः किसी का भी मन अपनी माँ की याद में खोने का कर सकता है....येः अलग है....करोड़ों माओं में से सिर्फ़ कुछ माएं ही टीवी और अखबार या इस जैसे दूसरे माध्यमों के जरिये ख़ास होने का दर्जा पा जाती हैं वहीं... गाँव और कस्बे में अपनी औलाद के लिए सबसे बेहतर की दुआओं में लगी माओं की आज भी कोई नही सुनता ना टीवी, न रेडियो न बाजार...आख़िर बाजार को पैसे वसूलने हैं..तोः ऐसे में अपनी गाँव की सीधी साधी माँ को याद करने की जरुरत बाजार को कहाँ है...टीवी चैनल्स, अखबार,रेडियो और वेब को कहाँ है...जाहिर है बाजार में वही टिकता है जो या तोः बिकता है या फिर बेंचता है....और अम्मा तुम तोः ठहरी सीधी साधी तुम्हे येः सब चोंचले कहाँ आते हैं...तुम्हे तोः प्यार देना आता है...सबको एक सा....मुझे भी अम्मा तुम्हारी याद आने लगी है...क्या-क्या न कहूँ आपके बारे में ....आज भी माँ के लिए निदा फाजली से बेहतर किसने लिखा है....
बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी माँ.....
फटे पुराने एक अल्बम में चंचल लड़की जैसी माँ.....
माँ दिल की असीम गहराइयों से आपको नमन.....आप सलामत रहें, खुशहाल रहें.....यूँही खिलखिलाती रहें....बस....हमेशा यही प्रार्थना है...
आपका बेटा

वाह भाई वाह!

ऑफिस में बैठकर बीबीसी हिन्दी पढ़ रहा था जैसा की रोज करता हूँ अभी भी थोडी बहुत आस्था बीबीसी में बरकरार है...पढ़ते-पढ़ते अपने ग्रेट खली के बारे में भी बीबीसी ने कुछ लिखा तोः सोचा पढ़ा जाए बीबीसी ऐसा क्या लिखता है खली के बारे में जो हमें ना मालूम हो...अब तोः खली की पूरी दिनचर्या मुहजबानी याद हो गई है...भैय्या क्या खाते है, क्या पीते हैं, भाभी को किस सिनेमा हॉल में फ़िल्म दिखाने ले जाते हैं..आदि आदि...खैर...
तोः मजेदार बात ये है की बीबीसी के शांतनु गुहा रे ने लिखा की खली भैय्या पूरी तरह से शाकाहारी हैं....लेकिन येः क्या कहानी में ट्विस्ट आ गया...बीबीसी पढ़कर जब अखबारों की फाइल खोली तोः नज़र दैनिक भास्कर पर चली गई....ये क्या ...भास्कर ने दिनांक १० मई के पहले पेज के दिल्ली संस्करण में लिखा की खली एक दिन में खाता है आठ चिकन....अब जाहिर है मुझ गरीब पत्रकार के सामने भी अजब संकट आ गया....सच्चा मानने का....किसको सच माना जाए...एक तरफ़ बीबीसी....पूरी दुनिया में सच दिखाने,बोलने और लिखने का दावा करता है...दूसरी तरफ़ अपना देसी भास्कर....भारत का सबसे तेज बढता अखबार....यकीन किस पर किया जाए....इस धर्मसंकट से अभी तक जूझ रहा हूँ...क्या किसी के पास इस सवाल का सही जवाब है की असल में खली शाकाहारी है या मांसाहारी....
दरअसल मीडिया की विश्वसनीयता के संकट की कई सारी कहानियों में से येः एक कहानी भर है....भारत के मीडिया जगत की..खासकर हिन्दी मीडिया की एक और सच्चाई हैं ये दो अलग-अलग खबरें....काश की लिखने वाले ने एक बार हम गरीबों के मासूम चेहरों की तरफ़ देखा होता तोः शायद ऐसा न लिखा जाता....क्या पढ़ने वालों के दर्द को कभी लिखने वाले समझेंगे? इतना भर जानना चाहता हूँ....
हृदयेंद्र

फुहार

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प्यार करता हूँ सबसे, आपकी कोई भी मदद बिना नफा नुक्सान सोचे कर दूंगा, अपने गुस्से से बहुत डर लगता है, हमेशा कोशिश रहती है की बस ''गुस्सा'' न आये मुझे, लोग मुझे बहुत अच्छे दोस्त, शरीफ इंसान और एक इमानदार दुश्मन के तौर पर याद रखते हैं, एक बार दुश्मनी कीजिये, देखिये कितनी इमानदारी से ये काम भी करता हूँ,