Sunday, May 25, 2008

ऍम जे अकबर भी ब्लोगिंग के मैदान में...

कल और आज अपनी बेहतर पत्रकारिता और सच को सबके सामने लाने का जज्बा रखने वाले होअंहार पत्रकार ऍम जे अकबर भी ब्लोगिंग के मैदान में अपनी पूरी उर्जा और तेवर के साथ मौजूद हैं....बहुत कम लोगों को शायद येः बात पता है...अर्से बाद किसी बेहतरीन पत्रकार को यहाँ देखकर वाकई दिली सुकून हुआ...१९७१ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया से अपने करीअर की शुरुआत करने वाले अकबर, १९७६ में रविवार के अंग्रेजी संकरण सन्डे के सम्पादक रहे..उस दौरान अकबर और एस पी सिंहकी जोड़ी ने जो धूम मचाई ...शायद आज तक किसी पत्रकार ने मचाई हो....मैं ख़ुद को उन सौभाग्यशाली लोगों में समझता हूँ जिनको रविवार और सन्डे दोनों अखबार पढने का मौका मिला...मुझे आज भी इन अखबारों का अपने बीच न होना अखरता है...जाहिर है ऍम जे और एस पी की जोड़ी को कई विवादों में भी घसीटा गया..पर अगर आपके पास तेवर हैं तोः उन्हे रोक कौन सकता है...बस यही ऍम जे की खासियत थी....उन खास लोगों में मैं ख़ुद को शुमार करना चाहूँगा जिन्होंने ऍम जे की पत्रकारिता और उसके तेवरों को बेहद करीब से देखा है...हैदराबाद में ऍम जे के डेक्कन क्रोअनिकल के समूह सम्पादक रहते उनके तेवरों को जब करीब से देखा तोः मैने भी ऍम जे होने के मतलब को कुछ-कुछ महसूस करने की कोशिश की....हर चीज पर तेज नज़र..चेहरे पर शालीन सी मुस्कराहट और हर कही ऐसा खोजने की नजर जिसे आम कहे जाने वाले लोग जान पाने से महरूम रह गए हों..हम एक दो बार ही मिले पर हर बार वोः पहले से ज्यादा सहज और सरल नजर आए....दरअसल ऍम जे हमारे बीच उस जमात के प्रतिनिधि है....जो लुप्तप्राय जन्तुओँ की श्रेणी में आती है(अगर गुस्ताखी हो तोः ऍम जे मुझे माफ़ करें)...गंभीरता का बेवजह आवरण पहनकर दूसरो का मूक अपमान करके ख़ुद को बडे पत्रकार की श्रेणी में रखने के लटके-झटकों से कोसों दूर येः शख्स हर बार यही विश्वास बंधाता नजर आया की जब तक ऍम जे हैं... सच उस दौर तक लिखा जायेगा...आज ऍम जे अपने अनुभवों, किताबों और विचारों के साथ ब्लोगिंग की दुनिया में मौजूद हैं...तोः वाकई सुकून और संतुष्टि महसूस होती है की ऍम जे यहाँ भी कुछ तेवर वाली और सबसे ज्यादा सच बात के साथ मौजूद हैं...तोः इस शानदार इंसान और पत्रकार का हमें दिल खोलकर स्वागत करना चाहिए...स्वागत है ऍम जे..हमारे बीच आपका...आप ऍम जे के साथ www.mjakbar.org पर संवाद स्थापित कर सकते है और उनकी नई पत्रिका के धारदार लेखों को भी पढ़ सकते हैं....
हृदयेंद्र प्रताप सिंह

Thursday, May 22, 2008

क्या आप अनुभव माथुर को जानते हैं....

इस सवाल का जवाब ज्यादातर लोग न में ही देंगे, वजह वही पुरानी अनुभव कोई सेलेब्रिटी नही है..मेरा दोस्त है..और हमारी पीड़ी के उन प्रतिभा शाली लोगों में से है..जिन पर एक गर्व करने की कई वजहें हैं...वैसे इन जनाब का थोड़ा परिचय देते चलूँ...देश के बेहतरीन मीडिया संस्थान..आई आई ऍम सी के अंग्रेजी पत्रकारिता के प्रमुख और अपने समय के प्रतिभाशाली पत्रकारों में से एक प्रदीप माथुर साहब के सुपुत्र है और जामिया मिल्लिया से पत्रकारिता में डिग्री होल्डर हैं..जिन प्रदीप माथुर सर की एक कॉल पर नौसिखिये पत्रकारों की नौकरी लग जाती है और दिग्गज पत्रकार जिस इंसान के पैर छूकर ख़ुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं..उस इंसान का बेटा होने के बावजूद अनुभव ने कभी अपने पिता से ख़ुद को नौकरी दिलाने के लिए एक शब्द नही बोला..पत्रकारिता अपनी शर्तों पर करना चाहता था येः इंसान और बेहतर करने के लिए पत्रकारिता में आना चाहता था...जज्बा देखिये इस इंसान का की पिल्पिले पत्रकारों की फौज का हिस्सा बन जाने की बजाय अनुभव ने नए पत्रकारों को पदाने का फ़ैसला किया आज इस इंसान के खाते में देश के टॉप ५० कॉलेज में पदाने का अनुभव है और इस समय अनुभव मलयेसिया के प्रमुख कॉलेज के पत्रकारिता विभाग के छात्रों को तैयार करने में जुटे है...येः तोः रहा अनुभव के अनुभव का छोटा सा इतिहास....
दरअसल अनुभव का जिक्र करने के पीछे वजह सिर्फ़ इतनी है की आज देश की पत्रकारिता के हाल पर बस यूँही दो आंसू बहाने का मन कर रहा था ...तोः सोचा इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है पत्रकारिता के दुर्भाग्य का....की एक बेहतरीन पत्रकार का मन पत्रकारिता के सूरत-ऐ-हाल से इस कदर उचाट हुआ की उसने इस पेशे को दूर से ही सलाम करना बेहतर समझा...दरअसल यही त्रासदी मेरे कई नौजवान और काबिल साथियों की है...सबको पता है की उनके आने से पत्रकारिता का भला होगा...कुछ बेहतर लोग आयेंगे तोः यकीनन पत्रकारिता का वर्तमान रूप बदलेगा..लेकिन त्रासदी यही है की अनुभव और उस जैसे तमाम योग्य नौजवान पत्रकारिता की मौजूदा हालत से इस कदर दुखी हैं की वोः अच्छे पत्रकार के सारे गुन होने के बावजूद पत्रकारिता के पेशे को नही अपनाना चाहते..सच येः भी है की अच्छे पत्रकार चाहिए किसको...मुझे बहुत अच्छी तरह याद है आज के सबसे नामी पत्रकार की बेहद अक्षम और अयोग्य बहन के साथ काम करने का दुर्भाग्य...कैसे वो महान महिला ख़बरों की माँ-बहन करती और चैनल हेड से लेकर हर कोई खबरों को लेकर उस वीरांगना की सोच पर सर पकड़कर बैठते थे आज वही वीर महिला अपने भाई के साथ ख़बरों की दुनिया में कमाल दिखा रही है....ये हाल हर कहीं है...काबिल लोगों ने या तोः पलायन कर दिया है या फिर ख़बरों की दुनिया में उनकी दिलचस्पी न के बराबर है...किसी ने मुझसे कहा था की पत्रकार बन
जाने के लिए बहुत योग्यता की जरूरत नही होती...आज उस इंसान की बात बेहद सही लगती है...पर इन सब के बीच अनुभव तुम्हारी याद बहुत आ रही है दोस्त...फ्रेम को लेकर..आइडिया को लेकर और ख़बरों को लेकर तुम्हारी समझ का मैं तोः क्या कोई भी कायल होता..आज तुम पत्रकारिता में होते तोः वाकई देश को एक बेहतरीन टी वी पत्रकार मिला होता ..पर अफ़सोस तुम जैसे काबिल इंसान की जरुरत हमारे यहाँ नही है...तुम मेरे दोस्त थे इस नाते इतना सब नही कहा मैने....सिर्फ़ अफ़सोस इस बात पर होता है की अगर तुम होते तोः वाकई टी वी देखने में मजा आता...यार मीडिया से तुम्हारा मन इतना उखडा की तुमने देश ही छोड़ दिया..तुम जरूर वहाँ बेहतर कर रहे होगे और जल्द ही तुम अमेरिका में पत्रकारों को प्रशिक्षित करोगे जैसा की तुम्हारी यौजना है लेकिन इस बीच हम क्या खोयेंगे और टी वी क्या खोयेगा इसका दर्द मुझसे बेहतर कौन जान सकता है दोस्त...मुझे मालूम है की तुम्हारे बारे में कोई नही जानता..लेकिन मैं जानता हूँ..अपनी जमात में तुम्हारे न होने का मतलब...मेरे पास सिर्फ़ अफ़सोस के कुछ नही है...बस तुम्हारा होना इतना दिलासा देता है की..एक दिन तुम दुनिया घूमकर आओगे और मीडिया तुमसे बहुत कुछ लेने के लिए तैयार खड़ा होगा....और तुम उसी बेसाख्ता हँसी के साथ हाथ फैला दोगे अपने नए दायित्य को गर्मजोशी के साथ सीने से लगाने के लिए...वोः दिन आएगा...जल्द ऐसी उम्मीद मुझे है..येः उम्मीद ग़लत भी तोः नही है मेरे दोस्त...फिर हम नई जे जे और सोनू के पीछे लगेंगे और नए आइडिया खोजेंगे...
तुम्हारा नालायक दोस्त
हृदयेंद्र

Tuesday, May 20, 2008

रामशरण हम शर्मिंदा हैं...

मंगलवार का दिन यूं तोः हर रोज की तरह शुरू हुआ ही था, की अचानक आँख चली गई हिन्दुस्तान टाइम्स की दर्दनाक ख़बर पर....ख़बर तोः आम ही थी क्यूंकि कलम घसीटने वालों को किसी के मरने से कोई ख़ास फर्क नही पड़ता..कहते हैं की येः तोः हमारा पेशा है की हमें यूँही भावहीन बने रहना है...संवेदना होने पर भटकने का खतरा है.....पता नही संवेदनहीन होने पर भटकने का खतरा है या संवेदनशील होने पर...येः तोः बड़े-बडे विद्वान् ही बता पायेंगे...पर ख़बर पढने के बाद संवेदनाओं पर काबू रख पाना बेहद मुश्किल लग रहा था अपने लिए...दुखद ख़बर येः थी मेरे लिए की दिल्ली के बी आर टी कारीडोर पर महज ३५०० की नौकरी करने वाले रामशरण को एक बस ने टक्कर मार दी..जिसमे रामशरण की मौत हो गई....जब ख़बर पढी तोः उस बेहद मामूली इंसान के प्रति श्रद्धा ही मन में उपजी....दरअसल रामशरण पहले एक दूकान चलाकर अपने परिवार का पालन पोषण करते थे...दिल्ली में सीलिंग का कहर टूटा और गरीब रामशरण की खुश हाली का साधन उनकी दूकान बंद हो गई...अदम्य जिजीविषा और संघर्ष शील इस इंसान ने हार न मानते हुए अपने प्रयास जारी रखे और बी आर टी में मार्शल की नौकरी शुरू की....बेहद मदद गार और खुद्दार इस इंसान के लिए जिन्दगी ने शायद दुश्वारियाँ कम न करने की कसम खा ली थी और इस शानदार इंसान की जिंदगी के साथ इसके लिए सब कुछ ख़त्म कर दिया....अब उनके परिवार में हैं पत्नी और बच्चे...पत्नी की आंखों में है बड़ा सा शून्य....उनकी पीड़ा को बेहद दर्दनाक तरीके से बयान करता हुआ....हजारों सवाल....अब क्या होगा ...न तोः रामशरण किसी पार्टी के कार्यकर्ता थे और न हरकिशन सुरजीत की....मनमोहन से लेकर आडवाणी तक उनके परिवार को दिलासा देने जाएँ...येः अलग बात है की उनका योगदान कहीं से भी सुरजीत से कम रहा हो ऐसा कोई समझदार आदमी नही मान सकता...लोगों को बिना किसी फायदे के सड़क पार करना, उन्हे जानकारी देना और हर वक्त उनकी मदद के लिए तपती धुप में एक मुस्कराहट के साथ खडे रहना...इससे बड़ा योगदान इंसानियत की तराजू पर क्या हो सकता है? किसी पर फर्क पडे न पडे...मुझ पर और मुझ जैसे कई लोगों को दर्द हुआ, अपने तरीके से मदद भी करूँगा पर...जिस दिलेरी से रामशरण जिन्दगी के मोर्चे पर लड़ाइयां लड़ रहा था...अब कौन लड़ेगा....उनकी पत्नी को कोई सहारा नही देगा...क्यूंकि वे बेहद आम लोग हैं...दाल चावल खाकर सो जाने वाले...वो आदमी दिलेर था, जांबाज था...मन कहता है....आख़िर बेहद आसान था उसके लिए चोरी करना, गाडियाँ लूटना और जेब काट लेना....क्यूंकि भले बने रहना बेहद मुश्किल है..और अपनी लाख दुश्वारियों के उस इंसान ने भले बने रहना ही चुना....उम्मीद है उनके परिवार तक हमारी संवेदनाएं पहुंचे और ईश्वर उनके परिवार को एकजुट कर सके...अंत में उनके जज्बे को सलाम करते हुए ....अपनी असीम संवेदनाओं के साथ
हृदयेंद्र
(इस पूरे मामले में दुखद येः था की अपने आप को किसी से कम न मानने वाले हिन्दी अखबारों में से सबने लगभग हाशिये पर रामशरण की मौत को रखा...कहीं तोः येः ख़बर छापी ही नही और जहाँ छापी वहाँ बस खानापूर्ति कर दी गई....किसी ने उस इंसान के जज्बे को दुनिया के सामने लाने की कोशिस नही की...एक पत्रकार कहलाने के नाते फिर एक बार अपने पेशे पर शर्म आई...लेकिन पता नही येः शर्म कितनों को आई होगी...उम्मीद है हमें इस गलती के लिए रामशरण की आत्मा कभी माफ़ नही करेगी...)

Sunday, May 18, 2008

उन साथियों के लिए जिन्हे अभी बहुत कुछ करना है..पत्रकारिता में

अगर तुम अपना दिमाग ठीक रख सकते हो जबकि तुम्हारे चारों ओर सब बेठीक हो रहा हो और लोग दोषी तुम्हे इसके लिए ठहरा रहे हों...अगर तुम अपने उपर विश्वास रख सकते हो जबकि सब लोग तुम पर शक कर रहे हों..पर साथ ही उनके संदेह की अवज्ञा तुम नहीं कर रहे हो..अगर तुम अच्छे दिनों की प्रतीक्षा कर सकते हो और प्रतीक्षा करते हुए उबते न हो..या जब सब लोग तुम्हें धोखा दे रहे हों पर तुम किसी को धोखा नहीं दे रहे हो...या जब सब लोग तुमसे घृणा कर रहे हों पर तुम किसी से घृणा नहीं कर रहे हो...साथ ही न तुम्हें भले होने का अभिमान हो न बुद्धिमान होने का....अगर तुम सपने देख सकते हो पर सपने को अपने उपर हावी न होने दो, अगर तुम विचार कर सकते हो पर विचारों में डूबे होने को अपना लक्ष्य न बना बैठो...अगर तुम विजय और पराजय दोनों का स्वागत कर सकते हो पर दोनों में से कोई तुम्हारा संतुलन नहीं बिगाड़ सकता हो...अगर तुम अपने शब्दों को सुनना मूर्खों द्वारा तोड़े मरोड़े जाने पर भी बर्दाश्त कर सकते हो और उनके कपट जाल में नहीं फंसते हो...या उन चीजों को ध्वस्त होते देखते हो जिनको बनाने में तुमने अपना सारा जीवन लगा दिया और अपने थके हाथों से उन्हें फिर से बनाने के लिए उद्यत होते हो..अगर तुम अपनी सारी उपलब्धियों का अंबार खड़ा कर उसे एक दांव लगाने का खतरा उठा सकते हो, हार हो या की जीत...और सब कुछ गंवा देने पर अपनी हानि के विषय में एक भी शब्द मुंह से न निकालते हुए उसे कण-कण प्राप्त करने के लिए पुनः सनद्ध हो जाते हो...अगर तुम अपने दिल अपने दिमाग अपने पुट्ठों को फिर भी कर्म नियोजित होने को बाध्य हो सकते हो जबकि वे पूरी तरह थक टूट चुके हों...जबकि तुम्हारे अंदर कुछ भी साबित न बचा हो...सिवाए तुम्हारे इच्छा बल के जो उनसे कह सके कि तुम्हें पीछे नहीं हटना है....अगर तुम भीड़ में घूम सको मगर अपने गुणों को भीड़ में न खो जाने दो और सम्राटों के साथ उठो बैठो मगर जन साधारण का संपर्क न छोड़ो...अगर तुम्हें प्रेम करने वाले मित्र और घृणा करने वाले शत्रु दोनों ही चोट नहीं पहुंचा सकते हों...अगर तुम सब लोगों का लिहाज कर सको लेकिन एक सीमा के बाहर किसी का भी नहीं, अगर तुम क्षमाहीन काल के एक एक पल का हिसाब दे सको.........तो यह सारी पृथ्वी तुम्हारी है...और हरेक वस्तु जो इस पृथ्वी पर है उस पर तुम्हारा हक है....वत्स तुम सच्चे अर्थों में इंसान कहे जाओगे....- रुडयार्ड किपलिंग

चन्द पंक्तियाँ, जो राहत देती हैं....

अपने कई मित्र आह़त होते हैं...खुश होते हैं..बदलते दौर से निराश भी...होना भी चाहिए...मुझे ऐसे में कुछ पंक्तियाँ बेहद राहत देती हैं...मेरे कई अपनों को भी राहत देंगी.... तोः लीजिये पेश-ए-नज़र है....

किरण की इकाई परतिमिर की दहाइयांशगुनो पर फैली हैं काली परछाइयांशक्ति कहीं गिरवी है भक्ति कहीं गिरवी है सौदा ईमानो का श्रद्धा सम्मानों का शंख भी शशंकित हैं सहमी हैं पुरवाइयां.....तोः इस दौर में जब एक चेहरे के भीतर ना जाने कितने चेहरे हैं...जब अपने आसपास शंका का माहौल बना है...कौन बुरा और कौन अच्छा है...पहचानना बेहद मुश्किल है तोः ऐसे में येः पंक्तियाँ मेरे ख़याल से बड़ी मौजूं लगती हैं....है कि नई......और हाँ येः मेरी नही हैं पता नही किस भलेमानुष की हैं...बाकी व्यस्त रहिये मस्त रहिये.....

हृदयेंद्र

क्या आप दौड़ घोडा को जानते हैं.....


बात काफी पहले की है छुट्टियों में अपने गाव जाना हुआ..मेरे बेहद प्रिय हैं नरेश जी...पढे तोः ज्यादा नही पर जागरूक बेहद..देश में राजनितिक सरगर्मी चल रही थी...प्रधानमंत्री कौन बनेगा....लोग अभी नरसिम्हा राव जी का नाम भी याद नही कर पाये थे....नाम का फुल फार्म.. की इतनी में एक और दखनी... आ गए...तोः साहब.नरेश भाई आए और बड़े कौतुहल से मुझसे पूछने लगे...भैय्या सुना है...दौड़ घोडा प्रधानमंत्री बन गए....पहले तोः मैं भी भौचक्का की साहब येः दौड़ घोडा कौन है....फिर जब नरेश भाई ने हिंट दिया तोः उनको छोड़कर हम सबके ऐसे ठहाके लगे की पूछिये मत...फिर उनको बताया गया की वे दौड़ घोडा नही बल्कि देवगौड़ा हैं...वाकई कई कई बार जीवन यूँही बेसाख्ता हंसने का मौका दे देता है...कहने का मतलब सिर्फ़ इतना ही...की बेहद गंभीर और लम्बे लम्बे लेखों विचारों के बीच कभी हलकी फुलकी मुस्कान के लिए भी जगह हो..दरअसल येः सूझी यूं की कई दिनों से लगा हुआ था की कुछ सरल और तरोताजा टाइप की चीज किसी ब्लॉग पर मिल सके..लेकिन भारत में नब्बे फीसद ब्लोग्स पर बडे बडे विचार..चे ग्वेरा से लेकर मार्क्स तक सात्र से लेकर देरिदा तक इन ब्लोग्स पर अपने पिटे और आप्रसंगिक हो चुके विचारों के साथ मिलेंगे...जब मारे शर्म के दूसरो को विकसित कहलाने वाले देशों के ब्लॉग लेखकों की ब्लोग्स पढी तोः वाकई मन बेहद खुश हुआ...वहाँ....मजाक था..भविष्य की चिंता थी...कुछ साझे संकल्प थे...तभी मन में विचार आया की ..अपने यहाँ ऐसा क्यों नही है...ब्लॉग के लिए स्पस मिलने का मतलब है की ज्ञान की सारी गंगा यही बहा देना...चुरा-चुरा के इसकी कविता..उसकी किताब..उसका विचार..सब पेल दो ताकि कहीं से भी येः संदेश ना जाने पाये की आप दूसरो से कम हैं...अभी एक सज्जन हैं..दिव्यान्सू शायद देशबंधु में हैं...बेहद हल्का..मन को राहत देनेवाला लिखा...न कोई बिला वजह का ज्ञान न कोई दिखावा..सब कुछ असल लग रहा था...येः इतना मुश्किल भी तोः नही है....सरल बने रहना ...असल बने रहना...विनम्र बने रहना...और यकीन जानिए हर किसी को येः अच्छा लगता है....पर ऐसी कौन सी मजबूरियाँ हैं की हमने ब्लॉग को भी अपनी कुंठायें निकालने का मंच बना लिया है....कुछ लोंग ब्लॉग के जरिये अपना हित साधने में लगे हैं, कुछ अपने चेले बनाने में...कुछ कुछ और करने में.....कहना सिर्फ़ यही था की यहाँ भी वही गंध फैला रखी है जो पहले अपने अपने समूहों में ही सिर्फ़ फैलाई जाती थी...कभी मौका मिले तोः रीडिफ़ के ब्लोग्स जरुर पढिये....मैं उनका बहुत बड़ा प्रशंशक हूँ..जाइए और तरोताजा होकर आइये....यार जब हम बुश की नीतियाँ नही बदल सकते, जब मार्क्स को कोई नही पूजता ....तोः नया अपनाओ....नयापन लाओ...मजा आएगा...तुम्हे भी और सभी को....तोः साहब कुछ जगह रखिये...जीवंतता के लिए....दूसरो के लिए....बहसों के लिए और हाँ मजे और धैर्य के साथ सुन्न्ने के लिए भी...बाजार, लोकप्रियता चीजों की सफलता, असफलता के बारे में बेहद बारीकी से सोचता हूँ अभी तक सारे अनुमान सही भी निकले तोः लगता है की ब्लोग्स के बारे में भी यही कुछ होगा.....वैसे भी येः ज्यादा दिनों की बात नही है...बंगलोर में गूगल में काम करने वाले साथी के मुताबिक विकल्प पर काम चल रहा है और कुछ दिन बाद येः पुरानी बात हो जायेगी....तोः अपने हित साधने की बजाय इसे हर बेहतर चीज का मंच बनाया जाए.....खूब लिखा जाए...पर सरल और दिलचस्प ...येः मुमकिन हैं....लोंग कोशिश भी कर रहे हैं....और उनको हिट्स भी जमकर मिल रही हैं.....जाहिर है.....पर ज्यादा दिन चोरी के विचारों की गंगा नही बहेगी

हृदयेंद्र

Tuesday, May 13, 2008

अमृत शर्मा का इस्तीफा

अपनी गुरबत के दिनों में एक शख्स से मेरा साबका पड़ा...नाम था अमृत शर्मा...चेहरे पर बेहद ज्यादा फैली हुयी दाढी आँख पर मोटा चश्मा और उसके भीतर से घूरती आँखें...कुल मिलकर अमृत भाई साहब के साथ पहला इन्काउन्टर बेहद खतरनाक हो सकता है किसी के लिए भी...मेरे लिए भी था...संस्थान में मेरे सीनिअर थे तोः पहली बार नजरें मिलने पर मेरी तरफ़ से रेस्पांस तीखा ही था...एक तोः सीनियर उपर से इतना खतरनाक आउटलुक....बाप रे बाप....सोचा एक और खून चूसू आ गया..खून पीने..बस उस दिन का बेसब्री से इन्तजार कर रहा था की कब काम शुरू हो और अमृत शर्मा नामक येः सीनियर मेरा खून चूसना शुरू करे...वैसे सीनियर कहलाने वाले प्राणियों से दूर ही रहना पसंद करता हूँ..पर जीवन में जो होना होता है..होकर रहता है...न चाहते हुए भी वो दिन आया जब हमने शब्दों का आदान-प्रदान किया....बेहद अपनेपन से मिले..बडे भाई सा स्नेह...कई सारी सलाहें और मेरे भविष्य को लेकर कई चिंताएँ...हर अगली मुलाक़ात में अमृत भाई साहब और भी करीब होते गए...अपने काम को सरल कैसे बनाया जाए इसपर भी कई सलाह मुझे मिली...
वक्त गुजरा हम एक सीनियर और जूनियर की बजाय बडे और छोटे भाई ज्यादा लगते...वक्त का पहिया घूमा मैने संस्थान छोडा तरक्की हासिल की...और मेरी हर तरक्की पर अमृत भाई साहब खुश होते पहले से भी ज्यादा साथ में बेहद काम की सलाह भी देते....
सबकुछ मजे में चल रहा था की अचानक एक रात फ़ोन आया की अमृत शर्मा ने इस्तीफा डे दिया...बेहद चंचल और मजेदार इंसान, मेहनतकश, काम को कभी भी काम की तरह न करने वाले इस इंसान को इस्तीफा देने की क्या जरुरत आन पड़ी....जब जाना तोः वही..पुरानी कहानी, किसी के अहम् की भेंट एक इमानदार इंसान की नौकरी चढ़ गई...न अमृत शर्मा कोई सेलेब्रिटी हैं और न बडे पत्रकार की उनके इस्तीफे पर कोई हांयतौबा मचे लेकिन दुनिया को सही और सच दिखाने का दावा करने वाली बिरादरी का सच इतना वीभत्स क्यों है....जवाब शायद ही किसी के पास है...कितने और मेहनतकश अमृत शर्मा ताकतवर ठेकेदारों के अहम् की भेंट चढ़ जायेंगे इसका किसी के पास कोई जवाब है क्या?
हृदयेंद्र

Monday, May 12, 2008

अपनी संवेदना के साथ....

अभी हमारे पड़ोसी बर्मा में नरगिस आया....नाम बेहद खूबसूरत पर रूप बेहद क्रूर...एक साथ करीब २४ हजार लोगों की जान ले ली..४५ हजार लापता...विपदा, संकट,त्रासदी..क्या कहें इसे...एक भयानक सा कुछ है...कुछ कुरूप सा...जिसे कोई दुबारा होते नही देखना चाहेगा....पहली ही बार कौन देखना चाहता था..पता नही कौन सा आवेग आता है प्रकृति को और उसका गुस्सा कुछ मासूमों पर निकल जाता है...क्या बिगाडा था दोलमा ने किसी का, सान्ग्ग्कू ने भी किसी का क्या बिगाडा था....बस उसने तोः अभी दुनिया देखनी ही शुरू की थी और उस नन्हे फूल को एक भयानक आंधी पता नही कहाँ ले गई अपने साथ..बिना कुछ सोचे की अभी उसे माँ के पास भी जाना है...आख़िर प्रकृति इतनी गैर जिम्मेदार तोः नही हो सकती...लेकिन बहुत सारे किंतु-परन्तु के साथ अब हिस्से में आया है रोना....सबके...हमारे भी...सिर्फ़ अपनी संवेदनाओं के साथ अपने पडोसियों के साहस को सलाम करते हुए इतना ही की...
तुम्हे पता नही था की त्रासदी यूं आएगी
चुपचाप
तभी अपने घर के आँगन में तुम लेटे थे बेहद आश्वस्त
तुम खुश थे
अपने परिवार के साथ
अब तुम्हारे पास
कहने के लिए बहुत कुछ नही बचा
न घर, न परिवार
न किलकारियाँ
लेकिन
तुम फिर से हंसोगे वायदा है मेरा
क्यूंकि तुम टूटे हो, अभी हारे नही
तुम्हे हँसना होगा....उस माँ के लिए जो अकेली है
उस बेटे के लिए जिसका कोई नही है
उस बहन के लिए जिसके सपनो को सिर्फ़ तुम सच कर सकते हो...
मैं कुछ नही कहूँगा
न संवेदना दूंगा
न दिलासा
क्यूंकि
तुम्हारी पीड़ा का इलाज नही है मेरे पास
मेरे पास हैं कुछ बेहद छोटे से शब्द
तुम्हारे प्रति सम्मान के, आभार के और प्यार के
उम्मीद है तुम्हारे नए जीवन के लिए ये काम आयेंगे...
तुम्हारा
''मैं''

Saturday, May 10, 2008

नमन माँ....

प्रिया माँ,
रविवार को मदर्स डे है....हर साल होता है ..इस साल भी...जाहिर है जब टीवी, रेडियो, विज्ञापन पर हर वक्त माँ की ममता की कहानियां सुनाई जा रही हैं...तोः किसी का भी मन अपनी माँ की याद में खोने का कर सकता है....येः अलग है....करोड़ों माओं में से सिर्फ़ कुछ माएं ही टीवी और अखबार या इस जैसे दूसरे माध्यमों के जरिये ख़ास होने का दर्जा पा जाती हैं वहीं... गाँव और कस्बे में अपनी औलाद के लिए सबसे बेहतर की दुआओं में लगी माओं की आज भी कोई नही सुनता ना टीवी, न रेडियो न बाजार...आख़िर बाजार को पैसे वसूलने हैं..तोः ऐसे में अपनी गाँव की सीधी साधी माँ को याद करने की जरुरत बाजार को कहाँ है...टीवी चैनल्स, अखबार,रेडियो और वेब को कहाँ है...जाहिर है बाजार में वही टिकता है जो या तोः बिकता है या फिर बेंचता है....और अम्मा तुम तोः ठहरी सीधी साधी तुम्हे येः सब चोंचले कहाँ आते हैं...तुम्हे तोः प्यार देना आता है...सबको एक सा....मुझे भी अम्मा तुम्हारी याद आने लगी है...क्या-क्या न कहूँ आपके बारे में ....आज भी माँ के लिए निदा फाजली से बेहतर किसने लिखा है....
बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी माँ.....
फटे पुराने एक अल्बम में चंचल लड़की जैसी माँ.....
माँ दिल की असीम गहराइयों से आपको नमन.....आप सलामत रहें, खुशहाल रहें.....यूँही खिलखिलाती रहें....बस....हमेशा यही प्रार्थना है...
आपका बेटा

वाह भाई वाह!

ऑफिस में बैठकर बीबीसी हिन्दी पढ़ रहा था जैसा की रोज करता हूँ अभी भी थोडी बहुत आस्था बीबीसी में बरकरार है...पढ़ते-पढ़ते अपने ग्रेट खली के बारे में भी बीबीसी ने कुछ लिखा तोः सोचा पढ़ा जाए बीबीसी ऐसा क्या लिखता है खली के बारे में जो हमें ना मालूम हो...अब तोः खली की पूरी दिनचर्या मुहजबानी याद हो गई है...भैय्या क्या खाते है, क्या पीते हैं, भाभी को किस सिनेमा हॉल में फ़िल्म दिखाने ले जाते हैं..आदि आदि...खैर...
तोः मजेदार बात ये है की बीबीसी के शांतनु गुहा रे ने लिखा की खली भैय्या पूरी तरह से शाकाहारी हैं....लेकिन येः क्या कहानी में ट्विस्ट आ गया...बीबीसी पढ़कर जब अखबारों की फाइल खोली तोः नज़र दैनिक भास्कर पर चली गई....ये क्या ...भास्कर ने दिनांक १० मई के पहले पेज के दिल्ली संस्करण में लिखा की खली एक दिन में खाता है आठ चिकन....अब जाहिर है मुझ गरीब पत्रकार के सामने भी अजब संकट आ गया....सच्चा मानने का....किसको सच माना जाए...एक तरफ़ बीबीसी....पूरी दुनिया में सच दिखाने,बोलने और लिखने का दावा करता है...दूसरी तरफ़ अपना देसी भास्कर....भारत का सबसे तेज बढता अखबार....यकीन किस पर किया जाए....इस धर्मसंकट से अभी तक जूझ रहा हूँ...क्या किसी के पास इस सवाल का सही जवाब है की असल में खली शाकाहारी है या मांसाहारी....
दरअसल मीडिया की विश्वसनीयता के संकट की कई सारी कहानियों में से येः एक कहानी भर है....भारत के मीडिया जगत की..खासकर हिन्दी मीडिया की एक और सच्चाई हैं ये दो अलग-अलग खबरें....काश की लिखने वाले ने एक बार हम गरीबों के मासूम चेहरों की तरफ़ देखा होता तोः शायद ऐसा न लिखा जाता....क्या पढ़ने वालों के दर्द को कभी लिखने वाले समझेंगे? इतना भर जानना चाहता हूँ....
हृदयेंद्र

फुहार

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प्यार करता हूँ सबसे, आपकी कोई भी मदद बिना नफा नुक्सान सोचे कर दूंगा, अपने गुस्से से बहुत डर लगता है, हमेशा कोशिश रहती है की बस ''गुस्सा'' न आये मुझे, लोग मुझे बहुत अच्छे दोस्त, शरीफ इंसान और एक इमानदार दुश्मन के तौर पर याद रखते हैं, एक बार दुश्मनी कीजिये, देखिये कितनी इमानदारी से ये काम भी करता हूँ,