Sunday, December 20, 2009

यूँ ही जलते रहना दीपक

दीपक का मतलब होता है दीया..दीया जो रौशनी दे, कितने लोग अपने नाम के मतलब को सार्थक कर पाते हैं, ज्यादातर नहीं, यही जवाब होगा, है न, जब मैं पैदा हुआ तब मेरा नाम रखा गया हृदयेंद्र, हृदयेंद्र मतलब, ह्रदय पर राज करने वाला, आज भी जब हर कुछ अपने ह्रदय का करता हूँ तो लगता है चलो नाम सार्थक हुआ,
अभी दो दिन पहले मित्र दीपक से मिलने गया, देश के सबसे बड़े मीडिया हाउस में कुछ बेहद ख़ास शक्शियतों के बीच चुपचाप सा अकेले में खड़ा दीपक हमेशा की तरह सबसे अलग था, सर पर कम हो चुके बाल, जिनके होने न होने की उसे कभी परवाह भी नहीं थी, वही मासूम सी मुस्कराहट और वही कौतुहल....मेरी ब्रांडेड जैकेट देखकर पूछ बैठना ....महंगी होगी न, जवाब क्या देता, बस यही की तुमसे महंगी नहीं है, तुम्हारे वक़्त से महंगी नहीं है, तुम्हारी आस्थाओं से महंगी नहीं है, तुम्हारे विचारों से महंगी तो बिलकुल भी नहीं है,
दरअसल मैं इंसानों को समझने की कोशिश में आज भी लगा हूँ, शायद इसीलिए मेरी ज्यादातर पोस्ट इंसानों के बारे में ही होती हैं, दीपक भी करोड़ों की भीड़ में एक ऐसा इंसान है, जिसका हमारे बीच होना उतना ही जरूरी है जितना जिन्दा रहने के लिए सांस लेना, दरअसल लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के बेहद चमकते सितारों में एक था दीपक, हमेशा समाज को बेहतर बनाने, जेब में चवन्नी न होने के बावजूद समाज के लिए कुछ करने की तड़प, मरने से पहले कुछ सार्थक करने की उलझन हमेशा मन में चलती रहती थी, लेनिन, मार्क्स, गोर्की और साम्वयाद से नफरत की हद तक नफरत करने के बावजूद दीपक ही था जिसके कहने पर मैंने इनको जानने की कोशिश शुरू की, और शायद साहित्य और संवाद को दीपक के साथ ही गंभीरता से समझ सका था, हम सब जहाँ किस्मत के धनीथे वहीँ अच्छे विचार और अच्छी सोच होने के बावजूद दीपक को एक अदद नौकरी पाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा और बमुश्किल तमाम एक चैंनेलमें नौकरी मिल सकी, हम सबको पता था की दीपक के कद के सामने ये नौकरी बेहद बौनी है लेकिन कर क्या सकते थे, फिर एक दिन अचानक वही हुआ जो हर प्रतिभासाली नौजवान के साथ होता है, किसी की जिद का शिकार दीपक की नौकरी को होना पड़ा, दीपक के लिए सबसे बेहतर चाहने के बावजूद उसके साथ कभी बेहतर तो क्या बुरा भी नहीं हुआ, हमेशा बेहद बुरा होता रहा, अचानक बीमार पिता जिंदगी की जंग हार गए, दीपक की नौकरी चली गयी, और फिर से एक नामी अखबार में शून्य से शुरू करना पड़ा, इन लाख उलझनों, तनावों और दबावों के कभी भी दीपक की खिलखिलाहट में कमी या कमीनगी नहीं देखी, इतना ही नहीं समाज को कुछ बेहतर देकर जाने की जिद वैसे ही बदस्तूर जारी रही, मेरी सुविधाभोगी जिन्दगी पर हमेशा उसी तल्खी के साथ टिप्पड़ी होती रही, मेरे कार्पोरेट ख्यालों पर तंज उसी तीखेपन के साथ छोड़तारहा इसा गरज के साथ की समाज के बेहतर बनाने के जज्बे या संकल्प में कहीं कम ना आ जाए,
मेरे दुसरे आम पात्रों की तरह दीपक भी न कोई मशहूर हस्ती है और न ही कोई स्टार लेकिन मेरे लिए दीपक के होने का मतलब बहुत है, ये जानने के बाद भी की हर मुलाकात के बीच एक लम्बा वक़्त ऐसा भी आएगा जब हम दोनों की बोलचाल तक बंद हो जायेगी कुछ देर के लिए लेकिन फिर भी दीपक ही तो है जो हमको रौशनी देगा, समाज को रौशनी देगा और पत्रकारों का झुण्ड जो एक रेवड़ में तब्दील हो चूका है उसे रौशनी देगा,
बस न भावुक हूँ, न किसी को हीरो बनाने की तम्मन्ना है, न किसी की तारीफों के बेवजह पुल बांधने हैं, बस सिर्फ यही कहना है, की टूट जाने की हद तक टूटने के बावजूद सत्यम, शिवम्, सुन्दरम का संकल्प कितने लोग ले पाते हैं, संगर्ष अच्छे अच्छे आदर्शों को हवा कर देता है, बावजूद इसके अपने उन्ही आदर्शों पर कई बार बेचारगी के साथ ही सही पर खड़े रहने के जज्बे को बार बार सलाम करने को मन करता हैं,
दीपक तुम्हारे लिए इतना ही कहूँगा,
दीपक हो रौशनी देते रहना......
तुम्हारा
हृदयेंद्र

Tuesday, August 4, 2009

इस मन्दिर से मयखाना भला...

कभी हरिवंश रॉय बच्चन जी ने कहा था की मन्दिर मस्जिद बैर कराते मेल कराती मधुशाला....उस वक्त बड़ा बवाल मचा लेकिन कोई बात यूँ ही नही होती....मुटियाए खाए और अघाये लोगों को जब मन्दिर की तरफ़ जाते देखता हूँ तो बड़ी कोफ्त होती है, लाख कुकर्म पर मन्दिर की देहरी का एक बार लाँघ जाना बहुत भरी पड़ता है...यही वजह है मन्दिर मस्जिद कहीं भी बना लीजिये हर शो हाउसफुल जाएगा ही जाएगा...मुद्दे पर आता हूँ...मन मारकर कुछ दिनों से मयूर विहार में रह रहा हूँ, गरीबों दुखियारों और मजलूमों की बस्तियों में जो दिक्कतें होती हैं यमुना पार की लगभग सभी कॉलोनियों में वही दिक्कतें हैं, मसलन लाइट का यूँही घंटो गायब रहना, यातायात की बुरी हालत और हर चीज एकदम बेतरतीब....कहाँ साउथ दिल्ली में मेरी जिंदगी कहाँ यमुना पार की जिंदगी....इससे कोफ्त है इसीलिए यहाँ आने के बाद ही भागने का जुगाड़ लगाने लगा, खैर....कुछ ऐसा ही कल देर रात भी हुआ...लाइट यूँही चली गई और बड़ी देर के लिए गई...किसी मित्र के यहाँ बैठा था सो घर पर जब गर्मी में उबल कर मरना बर्दाश्त से बाहर की बात लगी तो बाहर निकलने में ही भलाई समझी...इसी बीच नए बने मन्दिर के पास पड़ी बेंच पर जैसे ही बैठा था की एक पिल्लै के कराहने की अनवरत आवाज कानों में बरबस ही गूंजने लगी...हर कमजोर की मदद करने का मन हमेशा करता है सो ख़ुद को रोक नही पाया और आधी रात में पिल्ला खोजो कार्यक्रम में जुट गया, पिल्ला दिख भी गया और जब दिखा तो उससे कहीं ज्यादा तकलीफ मुझे हुयी, एक मन्दिर के अहाते में कई दिनों से भूखे प्यासे उस कुत्ते के पिल्लै को न किसी ने खाना दिया था और न पानी, बचपन से जानवरों के बेहद करीब होने के नाते बात समझ में आ गई थी की ये पिल्ला पानी की कमी, भूख और अपनी माँ से अलग होने की पीड़ा झेल रहा था, खास बात ये की मन्दिर के अहाते में ये पिल्ला कई दिनों से यूँही अपने तरीके से मन्दिर आने वाले कथित भक्तों से मदद की आस में गुहार लगा रहा था लेकिन भगवान् के भक्तों को जब इंसान की फिकर नही तो जानवर के प्रति सहानुभूति का नाम कौन लेता...जब घर से उस पिल्लै को पानी और रोटियाँ दी गई तो वो मासूम हमें छोड़ने के लिए तैयार ही नही था, जाहिर हैं जानवर होकर उसने अपनी संवेदनशीलता नही त्यागी लेकिन इंसान होकर कितनी आसानी से हम असंवेदनशील हो गए ये प्रभु के भक्तों ने शायद सोचा भी नही जाहिर है तभी इंसान मुझे हमेशा जानवर से बदतर ही लगता रहा है,
आधी रात को जब मैं और वो मासूम पिल्ला जुगलबंदी में जुटे थे, तभी एकाएक अपने बड़े भाई भूपेश चट्ठा के साथ पटियाला के शराबघरों की बेसाख्ता याद आ गई की कैसे वहां शहर भर के शराबी हर किस्म के शिकवे भूलकर एकसाथ बड़े मजे से बड़े खुलूस के साथ जाम लडाते थे और एक दुसरे के लिए जान तक दे देने को तैयार रहते थे..भले ही नशे में.....उस रात मुझे उन दारु के अड्डों की बड़ी याद आई जहाँ कम से कम किसी को भूखा मरने के लिए कोई यूँही नही छोड़ने को तैयार था....एक मन्दिर के अहाते में तिल तिल कर मर रहे एक मजलूम की आवाज घंटों के भीतर दब जाए उस मन्दिर जाकर क्या करना.....उससे कहीं भला वो मयखाना लगा....
वाकई मन्दिर और मस्जिद बैर कराते हों या नही लेकिन आज तक किसी मजलूम की मदद करते मैंने नही देखा इन मंदिरों और मस्जिदों के मठाधीशों को...इसीलिए मुझे आज भी इनसे घिन आती है और मन्दिर में खूबसूरत लडकियां देखने के अलावा आज भी दूसरे किसी मकसद से नही जाता, मुझे लगता है मेरा मकसद सही है और ये मन्दिर मस्जिद और इनमे सर झुकाने वाले आज भी ग़लत...सच क्या है..ये मेरा इश्वर जानता है.....वो कहाँ है..ये मुझे मालूम है....वो या तो किसी मासूम खिलखिलाहट में है..या पूँछ हिलाते किसी चौपाये में या मेरी तरफ़ बड़ी आस लगाकर देखती कुछ आंखों में है....शायद इसीलिए मैं मन्दिर जाने के बजाय बेटू की मुस्कराहट देखने जरूर उसके घर पहुँच जाता हूँ....जाहिर है मेरे भगवान् मन्दिर में जो नही हैं.....
हृदयेंद्र

Saturday, July 4, 2009

क्या आप रैम इमैनुअल को जानते हैं


बहुत लोग रैम इमैनुअल को नही जानते होंगे, दूसरे कई नौजवान साथियों की तरह पता नही क्यूँ लगता है की दुनिया में सबसे बेस्ट आज भी अमेरिका है, कई चीजों में हमसे मसलन डेमोक्रेसी, नौकरशाही,आर्थिक विकास और इमानदारी से लोगों को प्रतिभा के मुताबिक मौके उपलब्ध कराने के मामले में ( निजी अनुभव के आधार पर),
अमेरिका की कई चमकदार चीजों की तरह उनके राजनेता भी खासे चमकदार और प्रतिभाशाली होते हैं,
दरअसल रैम इमैनुअल का जिक्र यूँही नही किया है मैंने, सालों से लालू यादव जैसे विदूषक, सुरजीत और करात जैसे सत्ता के दलालों और अपच पैदा करने की हद तक अपनी संस्कृति को ढोनेवाले दक्षिण के नेताओं के साथ कांग्रेस के चाटुकार नेताओं की लम्बी फौज ने राजनीति नाम की चीज से ही विरक्ति पैदा कर दी है, जब इस देश के नेताओं को देखता हूँ तो वाकई एक बड़े से शून्य के सिवाय राजनीति में और कुछ नही दीखता, जिनको देश का युवा तुर्क कहा जाता है वो या तो अपने बाप की विरासत ढो रहे हैं या फ़िर बिना कुछ किए धरे हर तरह के मजे लेने के अपने खानदानी हुनर का लुत्फ़ ले रहे हैं, संसद में जब भी कारर्वाई देखता हूँ, उबासियाँ लेते नेता जिनके चेहरे से तेज, फुर्ती, चुस्ती सिरे से गायब है, इनसे कोई अक्ल का अँधा भी उम्मीद नही कर सकता, वही पश्चिम के नेता जहाँ पूरी तरह से मुस्तैद और बहुत कुछ करने को उतावले दीखते हैं, चार साल पहले शायद किसी ने बराक ओबामा का नाम सुना हो लेकिन ओबामा अचानक आए और पूरी दुनिया को अपने विचारों और नीतियों से हिलाकर रख दिया,
तो मुद्दे पर आते हैं साहब रैम इमैनुअल भी ओबामा की ही तरह अमेरिका की राजनीति की सनसनी हैं, इन्हे भी अपने बॉस ओबामा की तरह कुछ साल पहले शायद ही कोई जानता रहा हो लेकिन चुपचाप काम करने और अपनी नीतियों को बेहद कठोरता से लागू कराने वाले रैम अमेरिका की उस नीति की मिसाल हैं जिसमे जोर देकर ''सही व्यक्ति के लिए सही स्थान'' का दावा किया जाता है, १९५९ में शिकागो में जन्मे रैम, जेविश माता-पिता की औलाद हैं, बेहद साधारण परिवार से आने वाले इमैनुअल ने रेस्तरा में काम करने से लेकर पसंदीदा बैले डांस मन लगाकर किया और २००८ में बराक ओबामा के मुख्या रणनीतिकार अक्सेलराद से अपनी दोस्ती के चलते बराक ओबामा की टीम में शामिल हो गए, इनके मशहूरियत के बारे में इतना ही काफ़ी है की अपनी सख्त छवि के चलते ज्यादातर लोग इनको ''रैम्बो'' नाम से जानते हैं, शायद हमारे देश में अरसे से किसी राजनेता नें रैम्बो जैसा बयान दिया हो और उस पर अमल भी किया हो इस बयान को सुनकर ही पश्चिम के राजनीतिक लोगों की समझ का कुछ बहुत अंदाजा लगाया जा सकता है, इन्होने एक बार कहा था की'' Never allow a crisis to go to waste। They are opportunities to do big things ,, उपभोक्ता हितों के लिए संघर्ष करते करते रैम बिल क्लिंटन की चुनावी टीम का हिस्सा बने और उनको सलाह दी की चुनाव के लिए चंदा उगाहने का तरीका बदलिए जनाब जिसका नतीजा रहा की क्लिंटन ने आक्रामक चंदा उगाही अभियान चलाया और लोगों से मिलने और उन तक अपनी नीतिया पहुंचाने के लिए ज्यादा समय दिया और व्हाइट हाउस का सफर तय किया, इस तरह से क्लिंटन के साथ रैम्बो १९९३ से १९९८ तक सीनियर सलाहकार के बतौर काम किया, इतना ही नही अरब इस्रायल शान्ति वार्ता के लिए भी रैम्बो ने काफ़ी काम किया और इस्रायली प्रधानमंत्री इत्जाक रोबिन और फिलिस्तीन नेता यासर अराफात के बीच बातचीत का दौर भी शुरू कराया, एक राजनेता, समाजसेवक, इनवेस्टमेंट बैंकर और रणनीतिकार जैसे हर रंग में रैम पूरी सफलता से रमे , यही वजह रही की बराक ओबामा ने पहले तो उन्हें अपना रणनीतिकार बनाया फ़िर व्हाइट हाउस का चीफ ऑफ़ स्टाफ बनाकर एक सुलझे हुए और दूरदर्शी इस्रायली को साफ़ सुथरा और बेहतर मौका दिया,
अब कुछ और मुद्दे जिन पर हमारे जैसे लोग सोचते हैं
१-क्या भारत में कोई व्यक्ति जो भले किसी देश का नागरिक रहा हो लेकिन उसको आगे बदने के इतने साफ़ और पारदर्शी मौके मिलते हैं
२-क्या हमारे देश में वाकई समाज और राज्य के लिए कुछ करने की हिम्मत रखनेवाले और दूरदर्शी नेताओं को खूसट और खुर्राट नेता आगे बढ़ने देंगे
३-क्या हमारे देख में कोई नेता जनता के हित के लिए रैम्बो जैसी दबंगई के साथ अपनी नीतिया लागू करवा सकता है
४-बड़े बड़े प्रचार और दावों के बावजूद क्या वाकई सभी को अपनी प्रतिभा दिखाने का साफ़ और पारदर्शी मौका देश के हर नौजवान को मिलता है,
दरअसल रैम्बो के बहाने कुछ सवाल थे मन में की क्या वाकई इस देश में राजनीती उस मुकाम पर है जहाँ से कुछ बेहतर की उम्मीद मिल सके, जब विकसित देशों के नेता उनकी नीतियाँ और तरीकों पर गौर करता हूँ तो बस आह के सिवा इस देश की राजनीति से कोई उम्मीद नही मिलती, जहाँ रेल मंत्री हर तरीके से अपने राज्य के लोगों और अपने वोट बैंक को ध्यान में रख काम करता हो, जहाँ प्रतिभा पाटिल को इसलिए प्रेजिडेंट के ओहदे पर बिठाया जाता है क्यूंकि एक पार्टी की मुखिया को उनके जरिये देश पर जबरन अपना एजेंडा थोपने में मदद मिलेगी, जिन राहुल को देश का पालनहार बताया जा रहा है उन्होंने अपनी मर्जी से कितना काम इस देश के लिए किया है इसका जवाब कोई भी दे देगा, जहाँ नेता थोपे जाते हो उस देश का भविष्य उज्जवल है इसे घोर आशावाद के सिवाय और कुछ नही माना जा सकता, दरअसल इस देश को जरुरत है अमेरिका जैसे राजनीतिक सिस्टम की जहाँ काम करने वालों को आगे बढाया जाता है काम करने के लिए शायद तभी रैम इमैनुअल जैसे लोग बराक ओबामा को सलाह देकर हर हालत में सबसे बेहतर की कोशिश में जुटे हैं वो भी राजनीति जैसे क्षेत्र में, क्या भारत में कभी मुमकिन होगा ऐसा कर पाना किसी रैम इमैनुअल के लिए,

Tuesday, May 26, 2009

रोला गैरा का जादू एक बार फिर से....

इधर आईपीएल का जूनून ख़त्म हुआ उधर रोला गैरा में फ्रेंच ओपन शुरू हो गया, जब दुनिया क्रिकेट की दीवानी है तब भारत जैसे देश में टेनिस को पसंद करना बहुतों के लिए किसी गुनाह से कम नही होगा, पता नही क्यूँ आज भी टेनिस का मैच अगर कभी भी टीवी पर आ रहा हो तो अपने आप नजरें रुक ही जाती हैं, पता नही टेनिस कैसे और क्यूँ इतना पसंद आने लगा पर ये सच है आज भी बोरिस बेकरकी नशीली आँखें और स्टेफी ग्राफ के मासूम रिटर्न एकबारगी फ्लैश बैक में लेकर चले जाते हैं, याद है की गर्मियों की छुट्टियों में हम सब अपने ननिहाल जाया करते थे, वहीँ हम चव्वनी और अठन्नी ( यानि बच्चे) जो कुल मिलकर मैं और मौसी मामा के बच्चे मिलकर करीब एक क्रिकेट टीम के बराबर हो जाते थे टेनिस के मैच पूरी शिद्दत से मिल जुलकर देखते थे, खास बात ये की हम सब चूँकि सारे काम मिल जुलकर करते थे तो टेनिस के मैच भी मिल जुलकर ही देखा करते थे, कब टेनिस के शाट मारते मारते गब्रिएला सबातीनी पसंदीदा हो गयी पता ही नहीं चला, कई साल दिल पर राज करने के बाद स्टेफी ग्राफ का ग्राफ कुछ यूँ चढा की दुनिया में कोई खेल था तो टेनिस और सपनो में कोई आता था तो स्टेफी, ज्यादातर भारतीय युवाओं की पसंदीदा अक्सर कोई भारतीय या विदेशी फिल्म ऐक्ट्रेस होती है लेकिन अपनी पूरी जवानी और आज भी स्टेफी का जादू कम नहीं हुआ है मेरे दिल-ओ-दिमाग से, आज न बोरिस बेकर हैं, न जिम कुरिअर, न ही आंद्रे अगासी और न अपनी छोटी वाली मोनिका सेलेस, आज रोजेर फेडरर को भले देख लेता हूँ लेकिन टेनिस में जिनको सनसनी कहा जाता था शायद ही कोई हो, लेकिन फिर भी हर साल चारों ग्रैंड स्लैम उसी शिद्दत से होते हैं और टेनिस का महापर्व विम्बलडन भी बिना रुके जारी है, चेहरे भले बदल गए हों लेकिन क्रिकेट को सबकुछ मानने वाले देश में टेनिस भी कईयों के लिए दीवानगी है, यकीन न हो तो मेरे जिगरी दोस्त इन्द्रेश मिश्र के हॉस्टल के कमरे में अन्ना कुर्निकोवा की सौ से भी ज्यादा तस्वीर आपको सब कुछ बयान कर देंगी, भले अन्ना टेनिस में बहुत कुछ न कर पायी हों लेकिन लोगों के दिलों में बहुत कुछ हो गया सिर्फ अन्ना की वजह से, तो रोला गैरा फिर से तैयार है टेनिस में कुछ नए और पुराने सितारों की परीक्षा लेने के लिए और कुछ नए स्टार बनाने के लिए हो सकता है इस साल ही कोई नयी टेनिस सनसनी पैदा हो जाय और किसी को अपना दीवाना बना दे, और शायद मैं मरने से पहले एक बार उस सनसनी को फ्रांस जाकर अपनी आँखों से देख सकूँ खेलते हुए और फ्रेंच ग्राउंड पर समां बांधते हुए,


हृदयेंद्र


Saturday, May 23, 2009

ये है दिल्ली मेरी जान

कई साल पहले दिल्ली जब आया था तब मन में यही था की देश के दूसरे मेट्रो की तरह दिल्ली भी एक शहर के माफिक होगी, तब तक मुंबई मेरे दिल पर राज कर रही थी, बचपन में सबसे बड़े दो शहरों की याद ही दिलो दिमाग पर अंकित थी पहली आमची मुंबई और दूसरी भालो कोलकाता, जहाँ कोलकाता की सदी गर्मी और पसीने के साथ टूटी हुयी सड़कों ने इस शहर के प्रति कोई खास लगाव पैदा नहीं किया वहीँ रोज शाम को बैंडस्टैंड पर जाकर समुन्दर की उठती और गिरती लहरें आज भी वैसे ही मौजूद हैं, बहुत छोटा था जब मुंबई जाया करता था, उस समय कहीं मन में ये फैसला किया था की इसी शहर को जीतने आऊंगा एक दिन, लेकिन मुंबई बचपन में जितनी करीब थी बड़े होने के बाद उतनी ही दूर हो गयी, इधर काम धंधे की तलाश में जिंदगी दिल्ली ले आई, इस शहर में ऐसा कुछ नहीं है की इससे प्यार किया जा सके पर पता नहीं क्यूँ मन बार-बार यहीं रुकने को करता है, शायद ये दिल्ली की दिल्लगी ही है की अमेरिका जाने के प्रोग्राम को बार-बार आगे खिसका देता हूँ, सोचता हूँ यार थोडा और थोडा और रुक जाया जाए,
यहाँ की ब्लू लाइन बसों के बेहूदा और गंवार स्टाफ और ब्रांडेड कपडों में सजे धजे यहाँ के जाहिल बाशिंदों को देखकर हमेशा खून खौल जाता है ( दरअसल दिल्ली के आसपास जाटों और गुर्जरों की जमीन थी, और इनको बेंचकर ये बिरादरी पैसेवाली तो हुयी पर शायद दिल्ली की सभ्यता और संस्कृति को अपनी जंगली और बर्बर संस्कृति से जितना नुक्सान खुद दिल्ली के इन जंगली लोगों ने पहुँचाया है उतना शायद ही किसी बाहरी ने दिल्ली की संस्कृति को पहुँचाया होगा) लेकिन पता नहीं क्यूँ हर बार पीवीआर प्रिया पर मौज करने, सेंट्रल पार्क में कुछ अच्छे चेहरे देखने और स्टेटसमैन हाउस में किताबों के सेल्फ में सर खपाना दुनिया में कुछ भी करने से कहीं ज्यादा अच्छा लगता है, हाँ आज भी फ्रेंड्स कालोनी का कम्युनिटी सेंटर ऐसी जगह लगती है जहाँ बैठे-बैठे ही पूरी जिंदगी बिता सकता हूँ, मुनिरका का कैपिटल कोर्ट ऐसी जगह लगती है जहाँ मौसम कोई भी हो बैठने का मजा ही कुछ और है और जेएनयू का माहौल कभी महसूस ही नहीं होने देते की आप किसी बेहद भीड़ भरे और बेतरतीब शहर में हैं,
शायद यही दिल्ली है मेरे दोस्त, कहीं बहुत बुरी सी, तो कहीं बहुत खूबसूरत, जीके जाने पर हर बार मन यही करता है की बस थोडा और रुक जाया जाये थोडा और, यही वजह है की आज भी साउथ दिल्ली में एक अदद आशियाना बनाने की ख्वाहिश हमेशा मन में जिन्दा है, उम्मीद है मेरी जान दिल्ली अपने रंग बिरंगे रंगों के साथ हर बार मुझे यूँ ही रोक लेगी और मैं कहूँगा की दिल्ली मैं आऊंगा और जरुर आऊंगा लौटकर....एक बार फिर

हृदयेंद्र

Saturday, May 2, 2009

कहानी चिरकुट डॉट कॉम की

कई बार बहुत कुछ करने और होने के कोई मायने नहीं होते, कुछ ऐसा ही हम सब के साथ अक्सर या यूँही हो जाता है, एक बेहद दिलचस्प वाकया भी कुछ यूँ ही हो गया और मजाक मजाक में चिरकुट डॉट कॉम नामक वेबसाइट के जन्म की पटकथा लिख ली गयी, दरअसल हुआ कुछ यूँ की एक तकनीक के माहिर मित्र के यहाँ वेबसाइट के निर्माण की बात हो रही थी , इतने में कई चुतियापे भरे सवालों से मेरे मित्र का जैसे ही सर भारी हुआ तो उन्होंने मजाक मजाक में कह दिया भाई चिरकुट डॉट कॉम नामकी वेबसाइट बना डालो, बात मजाक में कही गयी थी लेकिन जब गंभीरता से सोचा तब इस चिरकुट से लगने वाले चिरकुट डॉट कॉम की कई सारी खासियतें पता चली, मसलन अपने बेजोड़ नामके चलते ही कई चिरकुट किस्म के प्राणी इस वेबसाइट से जुड़ सकते हैं, और तो और दुनिया भर का चिरकुट साहित्य और चिरकुट विचारों का मेरे ख़याल से ये अकेला मंच हो सकता है बस जरुरत है तो कुछ चिरकुट किस्म के लोगों को पकड़कर एक अदद चिरकुट डॉट कॉम को शुरू करने भर की, बस फिर देखिये कैसे दुनिया भर के चिरकुट अपनी चिरकुटई से इस चिरकुट डॉट कॉम को किस चिरकुट स्तर तक मेरा मतलब है की '' शीर्ष'' तक पहुंचाते हैं... शायद इसी को कहते हैं मजाक मजाक में एक क्रांतिकारी विचार का उपजना, तो आज से चिरकुट, चूतिये, चुतियापे, चुतियापंथी, चिल्लर, चम्पक, लल्लू, पप्पू और उठाईगीर टाइप के शब्दों पर गंभीरता से सोचना शुरू कीजिये पता नहीं इन फालतू टाइप शब्दों से कौन सा क्रांतिकारी विचार पनप जाए....
तो चिरकुटों की संपूर्ण बिरादरी को प्रणाम के साथ
हृदयेंद्र
२/५/२००९

Thursday, April 23, 2009

कहानी सुबिन दास की...

किसी तंगदिल ने पता नही कब मौका तलाशा और मेरी मोटर साइकिल की गद्दी पर अपनी सारी भड़ास निकाल दी, यानी बड़े सलीके से उसे ब्लेड से चीर दिया, जीवन में ख़ुद से जुड़ी सभी चीजों से बेपनाह प्यार करने के चलते अपनी गाड़ी से भी बेहद प्यार करता हूँ, फटी हुयी गद्दी देखकर दुःख तोः बहुत हुआ पर आप कई बार कुछ नही कर सकते सिवाय मूक दर्शक बनकर चीजों को देखने के, इस प्रवृत्ति को बहुत पहले ही विकसित कर लिया था ताकि जीवन में कम से कम तनाव में रह सकूँ, खैर, अपनी फटी हुयी गद्दी लेकर कई कामचोर किस्म के मोचियों के पास गया लेकिन सबने अपने हाथ खड़े कर दिए, अभी दिमाग में जुगत लगा ही रहा था की सालों पहले नॉएडा में १२-२२ चौराहे पर बेहद बुजुर्ग लेकिन सलीकेदार तरीके से चमड़ेके सामानों की दशा सुधारने वाले बुजुर्ग की याद आ गई , ऑफिस जाते समय रास्ते में नॉएडा के बेहद मशहूर १२-२२ चौराहे से सेक्टर ५६ की तरफ़ मुड़ने वाले कोने पर जाडा, गर्मी और बरसात में कुछ फटे पुराने कपडों में खुले आसमान के नीचे सुबीनदास का ठीहा या यूँ कहें ठिकाना है, बरसों बाद गाड़ी उस ठिकाने पर इस भरोसे के साथ ले गया की सुबीन दा जरूर मेरी दिक्कत का हल करेंगे, पेशे से पत्रकार हूँ पर जिंदगी में बहुत कुछ आज भी नही सीख पाया, मानवता, इंसानियत और दूसरी चीजों की बेहद कम समझ है लेकिन हर बार कुछ न कुछ ऐसा होता है जो इन चीजों पर गंभीरता से सोचने पर मजबूर करता है....खैर
आज भी गाड़ी लेकर सुबीन दा के पास पहुँचा, पहले से काफ़ी बुजुर्ग हो चुके थे, दुआ सलाम के बाद उस बुजुर्ग ने न केवल मेरी दिक्कत का हल निकाला बल्कि मुझे अपने बेहद पुराने बैग से एक अदद मिठाई का टुकडा दिया , इस तंगदिल शहर में अरसे बाद किसी अजनबी से मिलने पर एक बेहद गरीब आदमी जिसके रहने का ठिकाना भी नही है लेकिन बेहद गुरबत में भी अपने संस्कारों के प्रति इतना संवेदनशील होना और एक खाए- अघाए आदमी को भी मेहमान समझना और मिठाई का टुकडा बेहद प्यार से देना भीतर तक छु गया, पैसे और ज्यादा पैसे कमाने के चक्कर में सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ुद को खुदा माननेवाले इस शहर में अरसे बाद सुबीन दा ने एक सबक दिया , जाती व्यवस्था में सबसे ऊँची पायदान पर होने का अहम् अक्सर जोर मार जाता है लेकिन कभी जिसे हमारे यहाँ पैरों के नीचे रखा जाता था आज उसी इंसान के पाँव पड़ने का मन कर रहा था, कुछ पेशे की मजबूरी और कुछ जमाने की , सुबीन दा के पैर तो नही छु सका लेकिन गद्दी फटने का गम ना जाने कहाँ गायब हो गया था और साल भर बाद एक बेहद साधारण इंसान ने मुझे एक कभी न भूलनेवाला सबक दे दिया था, यकीनन जिंदगी कुछ यूँ ही सबक सिखा जाती है ...खैर उन एक घंटों में सुबीन दा ने करीब तीन कहानियाँ सुनाई और अपने मेहनाते को लेने से साफ़ इनकार कर दिया, बदले में उन्हें अपनी जेब में रखे सारे पैसे दे देना चाहता था लेकिन मालोम था की इन पैसों से उनकी दिक्कतें कभी कम नही होंगी बतौर एक पत्रकार ये वादा जरूर किया की किसी दिक्कत पर सबसे पहले खड़े होनेवालों मैं मैं होऊंगा ....यकीनन मुझे होना ही होगा उनके लिए और अपनी इंसानियत के लिए ....किताब लिखने का इरादा है उसमे बहुत कुछ लिख भी चुका हूँ कभी सुबीन दा के बारे में उसमे लिखूंगा और खूब लिखूंगा आख़िर महानगरों में और कितने सुबीन दा बाकी बचे हैं.....

हृदयेंद्र
२३ तारीख की आधी रात को यूँ ही

Monday, March 9, 2009

होलिया में उडे रे गुलाल

रंगों का त्यौहार
कहीं हजार, कहीं दिल के पार
कहीं महक, कहीं थोड़ा सा प्यार
थोडी जिन्दादिली, थोडी मशक्कत
थोडी जिद , थोडी मनुहार
कुछ आर पार
पता नही क्या
दीखता शीशे सा साफ़
न कोई इश्तिहार
कुछ रंग कुछ मौसम
कुछ दिल कुछ जबान
कुछ मोहब्बत कुछ अफसाना
कुछ कुछ हर कहीं
दिल में, तन में, मन में, हर कहीं
बहार
बौछार
प्यार
दुलार
और फ़िर
हर कहीं झूमती
बस एक अदद बयार
यही तो है
रंगों का त्यौहार...
उमंगो का त्यौहार
अपनी और उसकी कुछ अनकही
एक बार फ़िर से न कहने का त्यौहार
फलक फैलाकर
अपने सीने में समटने का त्यौहार
यही होगा तुम्हारे और मेरे जज्बातों का
कुछ अनकहा सा शायद '' त्यौहार''

'' हृदयेंद्र''

Sunday, February 22, 2009

एक दिन दोस्तों के नाम...

बचपन से ही यारबाजी में महारत हासिल कर रखी है या यूँ कहें की बिना यारबाजी के चैन नहीं मिलता, आखिरी तमन्ना भी यही है की दोस्तों के बीच ही अंतिम सांस टूटे, अरसे से दिल्ली के चूतियापों से ऊब हो गयी थी, तरीका भी कुछ सूझ नहीं रहा था, लेकिन हर सुबह शानदार नहीं होती, देर रात घर लौटने और अमूमन लोगों के जागने के समय सोने के कारण अपनी सुबह कोई दोपहर एक बजे के करीब होती है, दुनिया भले इसे दोपहर कहती हो पर ''जब जागो तभी सवेरा'' तोः अपनी सुबह इतने ही वक़्त होती है, अभी ठीक से आँख खुल भी न पायी की दिन की शुरुआत बड़े भाई समान ''आदर्श दादा'' के फ़ोन से हुयी, इधर बात ख़त्म हुयी उधर निखिल और अजित सिंह का आना हुआ, जब दिमाग की दही हो जाए और इतने बड़े शहर में बोअरियत होने लगे तोः दोस्तों का मिलना किसी कीमती वस्तुके मिलने से भी कहीं ज्यादा सुखद अनुभूति का एहसास कराती है, लगा की वक़्त को समेट लिया जाए, पर न मेरे हाथ में वक़्त आने से रहा न वक़्त का गुजरना, एक बार फिर दोस्तों के करीब होने का मतलब सबसे ज्यादा पता चला और ये भी की ''दोस्त जिन्दा मुलाकात बाकी'' अगर आप भी जिंदगी से ऊब गए हों तोः दोस्तों से मिलें, अच्छा और तरोताजा महसूस करेंगे, और अचानक दोस्तों से मिलें उन्हें खोजें और उनके साथ कुछ वक़्त बिताएं ......उर्जा से लबालब होने के लिए इससे सस्ता नुस्खा किसी हकीम के पास भी शायद ही होः,
वैसे कई दोस्तों को शिकायत है की उन्हें वक़्त नहीं दे पाता ''काकू'' भी यही कहता है लेकिन मिलने के लिए मिला जाए इसलिए बहुतों से नहीं मिलता , काश की '' काकू'' समेट बहुत से दोस्त इस मजबूरी को समझ पाते, लेकिन अब सोचा है की हर हफ्ते किसी करीबी दोस्त से जरुर मिलूँगा, लिस्ट बहुत लम्बी है और वक़्त बहुत कम है इसलिए मैं भी अभी से जुट जाता हूँ दोस्तों से मिलने की योजना बनाने में और आप भी बना लीजिये अपनी योजना....
इस बीच बहुत याद आती है कभी दिल के बेहद करीब रहे आशुतोष नारायण सिंह ( मौजूदा समय में आई बी एन -७ में किसी महत्वपूर्ण पद पर) , प्रमिला दीक्षित ( आजतक की बेहद उर्जावान रिपोर्टर ), वीरेंदर श्रीवास्तव ( स्टार टीवी में इंजिनियर ), दीपांकर नंदी ( आजतक) और तनसीम हैदर (आजतक) के साथ विनय शौरी ( क्राइम रिपोर्टर दैनिक जागरण, पटियाला) की.... इन सबने यारबाजी की मिसाल कायम की थी कभी अगर दोस्ती का इतिहास लिखा जाता तोः इन सबका नाम मैं जरुर उस किताब में लिखवाने की हर मुमकिन कोशिश करता, किसी के लिए अपना इम्तिहान छोड़ देना( आशुतोष) , एक दोस्त के आयोजन को सफल बनाने के लिए तपते बुखार मेंजी जान लगाकर आयोजन को सफल बनाना( प्रमिला) , गर्मियों में बिजली गुल हो जाने पर कमरे में बंद होकर नंगे होकर नाचना( वीरेंदर), बेहद गुरबत के दिनों में भी जूनियरों को छोटे भाइयों की तरह ट्रीट करना( दीपंकर दादा) , ई टी वी में मेरे हर दुःख दर्द को अपने सर लेना( तनसीम भाई) और एक अजनबी शहर में किसी कमी का महसूस न होने देना(शौरी पाजी) आज भी ठीक वैसे याद है , कुछ खफा हो गए कुछ खो गए कुछ से मिलने का वक़्त नहीं मिलता लेकिन आज भी एक दिन तोः क्या जिंदगी उन्ही दोस्तों के नाम करने का मन करता है, हर बार बार बार .....अगर किसी को आशुतोष, प्रमिला और दीपंकर दादा का नंबर मिले तोः भेजनेकी तकलीफ करें मेरी बहुत शुभकामनायें आपको मिलेंगी, बाकी ''अजनबी शहर है दोस्त मिलाते रहिये, दिल मिले तभी हाथ मिलाते रहिये ''...सभी दोस्तों की बेहतरी और शानदार जिंदगी की दुआ के साथ
''हृदयेंद्र ''

फुहार

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प्यार करता हूँ सबसे, आपकी कोई भी मदद बिना नफा नुक्सान सोचे कर दूंगा, अपने गुस्से से बहुत डर लगता है, हमेशा कोशिश रहती है की बस ''गुस्सा'' न आये मुझे, लोग मुझे बहुत अच्छे दोस्त, शरीफ इंसान और एक इमानदार दुश्मन के तौर पर याद रखते हैं, एक बार दुश्मनी कीजिये, देखिये कितनी इमानदारी से ये काम भी करता हूँ,