Saturday, May 23, 2009

ये है दिल्ली मेरी जान

कई साल पहले दिल्ली जब आया था तब मन में यही था की देश के दूसरे मेट्रो की तरह दिल्ली भी एक शहर के माफिक होगी, तब तक मुंबई मेरे दिल पर राज कर रही थी, बचपन में सबसे बड़े दो शहरों की याद ही दिलो दिमाग पर अंकित थी पहली आमची मुंबई और दूसरी भालो कोलकाता, जहाँ कोलकाता की सदी गर्मी और पसीने के साथ टूटी हुयी सड़कों ने इस शहर के प्रति कोई खास लगाव पैदा नहीं किया वहीँ रोज शाम को बैंडस्टैंड पर जाकर समुन्दर की उठती और गिरती लहरें आज भी वैसे ही मौजूद हैं, बहुत छोटा था जब मुंबई जाया करता था, उस समय कहीं मन में ये फैसला किया था की इसी शहर को जीतने आऊंगा एक दिन, लेकिन मुंबई बचपन में जितनी करीब थी बड़े होने के बाद उतनी ही दूर हो गयी, इधर काम धंधे की तलाश में जिंदगी दिल्ली ले आई, इस शहर में ऐसा कुछ नहीं है की इससे प्यार किया जा सके पर पता नहीं क्यूँ मन बार-बार यहीं रुकने को करता है, शायद ये दिल्ली की दिल्लगी ही है की अमेरिका जाने के प्रोग्राम को बार-बार आगे खिसका देता हूँ, सोचता हूँ यार थोडा और थोडा और रुक जाया जाए,
यहाँ की ब्लू लाइन बसों के बेहूदा और गंवार स्टाफ और ब्रांडेड कपडों में सजे धजे यहाँ के जाहिल बाशिंदों को देखकर हमेशा खून खौल जाता है ( दरअसल दिल्ली के आसपास जाटों और गुर्जरों की जमीन थी, और इनको बेंचकर ये बिरादरी पैसेवाली तो हुयी पर शायद दिल्ली की सभ्यता और संस्कृति को अपनी जंगली और बर्बर संस्कृति से जितना नुक्सान खुद दिल्ली के इन जंगली लोगों ने पहुँचाया है उतना शायद ही किसी बाहरी ने दिल्ली की संस्कृति को पहुँचाया होगा) लेकिन पता नहीं क्यूँ हर बार पीवीआर प्रिया पर मौज करने, सेंट्रल पार्क में कुछ अच्छे चेहरे देखने और स्टेटसमैन हाउस में किताबों के सेल्फ में सर खपाना दुनिया में कुछ भी करने से कहीं ज्यादा अच्छा लगता है, हाँ आज भी फ्रेंड्स कालोनी का कम्युनिटी सेंटर ऐसी जगह लगती है जहाँ बैठे-बैठे ही पूरी जिंदगी बिता सकता हूँ, मुनिरका का कैपिटल कोर्ट ऐसी जगह लगती है जहाँ मौसम कोई भी हो बैठने का मजा ही कुछ और है और जेएनयू का माहौल कभी महसूस ही नहीं होने देते की आप किसी बेहद भीड़ भरे और बेतरतीब शहर में हैं,
शायद यही दिल्ली है मेरे दोस्त, कहीं बहुत बुरी सी, तो कहीं बहुत खूबसूरत, जीके जाने पर हर बार मन यही करता है की बस थोडा और रुक जाया जाये थोडा और, यही वजह है की आज भी साउथ दिल्ली में एक अदद आशियाना बनाने की ख्वाहिश हमेशा मन में जिन्दा है, उम्मीद है मेरी जान दिल्ली अपने रंग बिरंगे रंगों के साथ हर बार मुझे यूँ ही रोक लेगी और मैं कहूँगा की दिल्ली मैं आऊंगा और जरुर आऊंगा लौटकर....एक बार फिर

हृदयेंद्र

Saturday, May 2, 2009

कहानी चिरकुट डॉट कॉम की

कई बार बहुत कुछ करने और होने के कोई मायने नहीं होते, कुछ ऐसा ही हम सब के साथ अक्सर या यूँही हो जाता है, एक बेहद दिलचस्प वाकया भी कुछ यूँ ही हो गया और मजाक मजाक में चिरकुट डॉट कॉम नामक वेबसाइट के जन्म की पटकथा लिख ली गयी, दरअसल हुआ कुछ यूँ की एक तकनीक के माहिर मित्र के यहाँ वेबसाइट के निर्माण की बात हो रही थी , इतने में कई चुतियापे भरे सवालों से मेरे मित्र का जैसे ही सर भारी हुआ तो उन्होंने मजाक मजाक में कह दिया भाई चिरकुट डॉट कॉम नामकी वेबसाइट बना डालो, बात मजाक में कही गयी थी लेकिन जब गंभीरता से सोचा तब इस चिरकुट से लगने वाले चिरकुट डॉट कॉम की कई सारी खासियतें पता चली, मसलन अपने बेजोड़ नामके चलते ही कई चिरकुट किस्म के प्राणी इस वेबसाइट से जुड़ सकते हैं, और तो और दुनिया भर का चिरकुट साहित्य और चिरकुट विचारों का मेरे ख़याल से ये अकेला मंच हो सकता है बस जरुरत है तो कुछ चिरकुट किस्म के लोगों को पकड़कर एक अदद चिरकुट डॉट कॉम को शुरू करने भर की, बस फिर देखिये कैसे दुनिया भर के चिरकुट अपनी चिरकुटई से इस चिरकुट डॉट कॉम को किस चिरकुट स्तर तक मेरा मतलब है की '' शीर्ष'' तक पहुंचाते हैं... शायद इसी को कहते हैं मजाक मजाक में एक क्रांतिकारी विचार का उपजना, तो आज से चिरकुट, चूतिये, चुतियापे, चुतियापंथी, चिल्लर, चम्पक, लल्लू, पप्पू और उठाईगीर टाइप के शब्दों पर गंभीरता से सोचना शुरू कीजिये पता नहीं इन फालतू टाइप शब्दों से कौन सा क्रांतिकारी विचार पनप जाए....
तो चिरकुटों की संपूर्ण बिरादरी को प्रणाम के साथ
हृदयेंद्र
२/५/२००९

Thursday, April 23, 2009

कहानी सुबिन दास की...

किसी तंगदिल ने पता नही कब मौका तलाशा और मेरी मोटर साइकिल की गद्दी पर अपनी सारी भड़ास निकाल दी, यानी बड़े सलीके से उसे ब्लेड से चीर दिया, जीवन में ख़ुद से जुड़ी सभी चीजों से बेपनाह प्यार करने के चलते अपनी गाड़ी से भी बेहद प्यार करता हूँ, फटी हुयी गद्दी देखकर दुःख तोः बहुत हुआ पर आप कई बार कुछ नही कर सकते सिवाय मूक दर्शक बनकर चीजों को देखने के, इस प्रवृत्ति को बहुत पहले ही विकसित कर लिया था ताकि जीवन में कम से कम तनाव में रह सकूँ, खैर, अपनी फटी हुयी गद्दी लेकर कई कामचोर किस्म के मोचियों के पास गया लेकिन सबने अपने हाथ खड़े कर दिए, अभी दिमाग में जुगत लगा ही रहा था की सालों पहले नॉएडा में १२-२२ चौराहे पर बेहद बुजुर्ग लेकिन सलीकेदार तरीके से चमड़ेके सामानों की दशा सुधारने वाले बुजुर्ग की याद आ गई , ऑफिस जाते समय रास्ते में नॉएडा के बेहद मशहूर १२-२२ चौराहे से सेक्टर ५६ की तरफ़ मुड़ने वाले कोने पर जाडा, गर्मी और बरसात में कुछ फटे पुराने कपडों में खुले आसमान के नीचे सुबीनदास का ठीहा या यूँ कहें ठिकाना है, बरसों बाद गाड़ी उस ठिकाने पर इस भरोसे के साथ ले गया की सुबीन दा जरूर मेरी दिक्कत का हल करेंगे, पेशे से पत्रकार हूँ पर जिंदगी में बहुत कुछ आज भी नही सीख पाया, मानवता, इंसानियत और दूसरी चीजों की बेहद कम समझ है लेकिन हर बार कुछ न कुछ ऐसा होता है जो इन चीजों पर गंभीरता से सोचने पर मजबूर करता है....खैर
आज भी गाड़ी लेकर सुबीन दा के पास पहुँचा, पहले से काफ़ी बुजुर्ग हो चुके थे, दुआ सलाम के बाद उस बुजुर्ग ने न केवल मेरी दिक्कत का हल निकाला बल्कि मुझे अपने बेहद पुराने बैग से एक अदद मिठाई का टुकडा दिया , इस तंगदिल शहर में अरसे बाद किसी अजनबी से मिलने पर एक बेहद गरीब आदमी जिसके रहने का ठिकाना भी नही है लेकिन बेहद गुरबत में भी अपने संस्कारों के प्रति इतना संवेदनशील होना और एक खाए- अघाए आदमी को भी मेहमान समझना और मिठाई का टुकडा बेहद प्यार से देना भीतर तक छु गया, पैसे और ज्यादा पैसे कमाने के चक्कर में सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ुद को खुदा माननेवाले इस शहर में अरसे बाद सुबीन दा ने एक सबक दिया , जाती व्यवस्था में सबसे ऊँची पायदान पर होने का अहम् अक्सर जोर मार जाता है लेकिन कभी जिसे हमारे यहाँ पैरों के नीचे रखा जाता था आज उसी इंसान के पाँव पड़ने का मन कर रहा था, कुछ पेशे की मजबूरी और कुछ जमाने की , सुबीन दा के पैर तो नही छु सका लेकिन गद्दी फटने का गम ना जाने कहाँ गायब हो गया था और साल भर बाद एक बेहद साधारण इंसान ने मुझे एक कभी न भूलनेवाला सबक दे दिया था, यकीनन जिंदगी कुछ यूँ ही सबक सिखा जाती है ...खैर उन एक घंटों में सुबीन दा ने करीब तीन कहानियाँ सुनाई और अपने मेहनाते को लेने से साफ़ इनकार कर दिया, बदले में उन्हें अपनी जेब में रखे सारे पैसे दे देना चाहता था लेकिन मालोम था की इन पैसों से उनकी दिक्कतें कभी कम नही होंगी बतौर एक पत्रकार ये वादा जरूर किया की किसी दिक्कत पर सबसे पहले खड़े होनेवालों मैं मैं होऊंगा ....यकीनन मुझे होना ही होगा उनके लिए और अपनी इंसानियत के लिए ....किताब लिखने का इरादा है उसमे बहुत कुछ लिख भी चुका हूँ कभी सुबीन दा के बारे में उसमे लिखूंगा और खूब लिखूंगा आख़िर महानगरों में और कितने सुबीन दा बाकी बचे हैं.....

हृदयेंद्र
२३ तारीख की आधी रात को यूँ ही

Monday, March 9, 2009

होलिया में उडे रे गुलाल

रंगों का त्यौहार
कहीं हजार, कहीं दिल के पार
कहीं महक, कहीं थोड़ा सा प्यार
थोडी जिन्दादिली, थोडी मशक्कत
थोडी जिद , थोडी मनुहार
कुछ आर पार
पता नही क्या
दीखता शीशे सा साफ़
न कोई इश्तिहार
कुछ रंग कुछ मौसम
कुछ दिल कुछ जबान
कुछ मोहब्बत कुछ अफसाना
कुछ कुछ हर कहीं
दिल में, तन में, मन में, हर कहीं
बहार
बौछार
प्यार
दुलार
और फ़िर
हर कहीं झूमती
बस एक अदद बयार
यही तो है
रंगों का त्यौहार...
उमंगो का त्यौहार
अपनी और उसकी कुछ अनकही
एक बार फ़िर से न कहने का त्यौहार
फलक फैलाकर
अपने सीने में समटने का त्यौहार
यही होगा तुम्हारे और मेरे जज्बातों का
कुछ अनकहा सा शायद '' त्यौहार''

'' हृदयेंद्र''

Sunday, February 22, 2009

एक दिन दोस्तों के नाम...

बचपन से ही यारबाजी में महारत हासिल कर रखी है या यूँ कहें की बिना यारबाजी के चैन नहीं मिलता, आखिरी तमन्ना भी यही है की दोस्तों के बीच ही अंतिम सांस टूटे, अरसे से दिल्ली के चूतियापों से ऊब हो गयी थी, तरीका भी कुछ सूझ नहीं रहा था, लेकिन हर सुबह शानदार नहीं होती, देर रात घर लौटने और अमूमन लोगों के जागने के समय सोने के कारण अपनी सुबह कोई दोपहर एक बजे के करीब होती है, दुनिया भले इसे दोपहर कहती हो पर ''जब जागो तभी सवेरा'' तोः अपनी सुबह इतने ही वक़्त होती है, अभी ठीक से आँख खुल भी न पायी की दिन की शुरुआत बड़े भाई समान ''आदर्श दादा'' के फ़ोन से हुयी, इधर बात ख़त्म हुयी उधर निखिल और अजित सिंह का आना हुआ, जब दिमाग की दही हो जाए और इतने बड़े शहर में बोअरियत होने लगे तोः दोस्तों का मिलना किसी कीमती वस्तुके मिलने से भी कहीं ज्यादा सुखद अनुभूति का एहसास कराती है, लगा की वक़्त को समेट लिया जाए, पर न मेरे हाथ में वक़्त आने से रहा न वक़्त का गुजरना, एक बार फिर दोस्तों के करीब होने का मतलब सबसे ज्यादा पता चला और ये भी की ''दोस्त जिन्दा मुलाकात बाकी'' अगर आप भी जिंदगी से ऊब गए हों तोः दोस्तों से मिलें, अच्छा और तरोताजा महसूस करेंगे, और अचानक दोस्तों से मिलें उन्हें खोजें और उनके साथ कुछ वक़्त बिताएं ......उर्जा से लबालब होने के लिए इससे सस्ता नुस्खा किसी हकीम के पास भी शायद ही होः,
वैसे कई दोस्तों को शिकायत है की उन्हें वक़्त नहीं दे पाता ''काकू'' भी यही कहता है लेकिन मिलने के लिए मिला जाए इसलिए बहुतों से नहीं मिलता , काश की '' काकू'' समेट बहुत से दोस्त इस मजबूरी को समझ पाते, लेकिन अब सोचा है की हर हफ्ते किसी करीबी दोस्त से जरुर मिलूँगा, लिस्ट बहुत लम्बी है और वक़्त बहुत कम है इसलिए मैं भी अभी से जुट जाता हूँ दोस्तों से मिलने की योजना बनाने में और आप भी बना लीजिये अपनी योजना....
इस बीच बहुत याद आती है कभी दिल के बेहद करीब रहे आशुतोष नारायण सिंह ( मौजूदा समय में आई बी एन -७ में किसी महत्वपूर्ण पद पर) , प्रमिला दीक्षित ( आजतक की बेहद उर्जावान रिपोर्टर ), वीरेंदर श्रीवास्तव ( स्टार टीवी में इंजिनियर ), दीपांकर नंदी ( आजतक) और तनसीम हैदर (आजतक) के साथ विनय शौरी ( क्राइम रिपोर्टर दैनिक जागरण, पटियाला) की.... इन सबने यारबाजी की मिसाल कायम की थी कभी अगर दोस्ती का इतिहास लिखा जाता तोः इन सबका नाम मैं जरुर उस किताब में लिखवाने की हर मुमकिन कोशिश करता, किसी के लिए अपना इम्तिहान छोड़ देना( आशुतोष) , एक दोस्त के आयोजन को सफल बनाने के लिए तपते बुखार मेंजी जान लगाकर आयोजन को सफल बनाना( प्रमिला) , गर्मियों में बिजली गुल हो जाने पर कमरे में बंद होकर नंगे होकर नाचना( वीरेंदर), बेहद गुरबत के दिनों में भी जूनियरों को छोटे भाइयों की तरह ट्रीट करना( दीपंकर दादा) , ई टी वी में मेरे हर दुःख दर्द को अपने सर लेना( तनसीम भाई) और एक अजनबी शहर में किसी कमी का महसूस न होने देना(शौरी पाजी) आज भी ठीक वैसे याद है , कुछ खफा हो गए कुछ खो गए कुछ से मिलने का वक़्त नहीं मिलता लेकिन आज भी एक दिन तोः क्या जिंदगी उन्ही दोस्तों के नाम करने का मन करता है, हर बार बार बार .....अगर किसी को आशुतोष, प्रमिला और दीपंकर दादा का नंबर मिले तोः भेजनेकी तकलीफ करें मेरी बहुत शुभकामनायें आपको मिलेंगी, बाकी ''अजनबी शहर है दोस्त मिलाते रहिये, दिल मिले तभी हाथ मिलाते रहिये ''...सभी दोस्तों की बेहतरी और शानदार जिंदगी की दुआ के साथ
''हृदयेंद्र ''

Sunday, December 7, 2008

एक बीमारी का जाना दूर बहुत दूर...

अक्सर वर्क प्लेस में सहयोगी कहे जाने वाले असहयोगियों को झेलना ज्यादातर की या तो मजबूरी होती है या फ़िर आदत...लेकिन हो न हो... ज्यादातर लोग इस दिक्कत से दो चार जरूर होते हैं...ऐसी ही एक दिक्कत से छुटकारा पाने के चलते फील गुड का एहसास कर रहा हूँ, संस्थान के परम कमीने असहयोगी के ऑफिस में न होने से आपकी कार्यक्षमता का असल अंदाजा तभी लगता है..हर ऑफिस की तरह शायद हम सबों के बुरे कर्मो का फल इन महोदय के साथ के रूप में मिला, और अपनी कमीनगी से इन महोदय ने न सिर्फ़ पूरे ऑफिस की थोक में गालियाँ खायी बल्कि ढेर सारी बद्दुआएं भी साथ लेते रहे, लेकिन भला हो इनके घटिया संस्कारों का की महाशय अपनी कमीनगी से इंच भर भी नही हटे और दूसरो के लिए हमेशा परेशानी का सबब बने रहे...आज वाकई हम सुब उस फर्क को महसूस कर रहे हैं जो एक घटिया और कमीने इंसान के अपने बीच न होने से होता है...आख़िर दुनिया को सच और सही रास्ते का ज्ञान देने का ख़म ठोंकने वाले एक अदना से जानवर कहलाने वाले इंसान से डर जाएँ, सुनने में अजीब लगता है, लेकिन सच है..दरअसल हर ऑफिस की यही कहानी है और हर कहीं हम ऐसे घटिया और निकम्मे जानवरों से लड़ने में ना जाने कितनी उर्जा बरबाद करते हैं, क्या किसी ऑफिस में या किसी कंपनी में ऐसे तत्वों से निपटने के लिए कोई योजना बनाई जायेगी ताकि ऑफिस के ज्यादातर लोगों की उर्जा को बरबाद होने से बचाया जा सके...( जानकारी के लिए ये भी की महिलाओं पर कार्यक्रम बनाने वाले चैनल को अपनी नकारात्मक उर्जा और कमीनगी से सराबोर करने के लिए महान आत्मा पदार्पण कर चुकी है, ऐसे में अपनी पूरी सहानुभूति उस चैनल के कर्मठ काम करनेवालों के प्रति रखते हुए, उन सभी के सुखद जीवन की कामना और उस महान आत्मा को धन्यवाद के साथ (हमारा पीछा छोड़ने के लिए) और इश्वर से ऐसी दुरात्माओं को बनाने के लिए घोर शिकायत के साथ ...पुनश्च

''हृदयेंद्र''

समझ नही आता

मौसम का कुछ यूँ रंग बदलना
इंसानों की तरह,
समझ नही आता
इंसानों का रंग बदलना इन्द्रधनुष सा
समझ नही आता
बरसना बेमौसम में
जज्बातों का
समझ नही आता
गर्मी और सर्दी के बीच का इतना लंबा फासला
समझ नही आता
दोस्त कहकर भी दुश्मन सा बने रहना
समझ नही आता
अगर आपको आ जाए समझना तो
जरूर समझाइएगा
समझना चाहता हूँ
जिंदगी की उलझनों को

''हृदयेंद्र''
८.१२.०८

फुहार

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प्यार करता हूँ सबसे, आपकी कोई भी मदद बिना नफा नुक्सान सोचे कर दूंगा, अपने गुस्से से बहुत डर लगता है, हमेशा कोशिश रहती है की बस ''गुस्सा'' न आये मुझे, लोग मुझे बहुत अच्छे दोस्त, शरीफ इंसान और एक इमानदार दुश्मन के तौर पर याद रखते हैं, एक बार दुश्मनी कीजिये, देखिये कितनी इमानदारी से ये काम भी करता हूँ,