Sunday, December 20, 2009
यूँ ही जलते रहना दीपक
अभी दो दिन पहले मित्र दीपक से मिलने गया, देश के सबसे बड़े मीडिया हाउस में कुछ बेहद ख़ास शक्शियतों के बीच चुपचाप सा अकेले में खड़ा दीपक हमेशा की तरह सबसे अलग था, सर पर कम हो चुके बाल, जिनके होने न होने की उसे कभी परवाह भी नहीं थी, वही मासूम सी मुस्कराहट और वही कौतुहल....मेरी ब्रांडेड जैकेट देखकर पूछ बैठना ....महंगी होगी न, जवाब क्या देता, बस यही की तुमसे महंगी नहीं है, तुम्हारे वक़्त से महंगी नहीं है, तुम्हारी आस्थाओं से महंगी नहीं है, तुम्हारे विचारों से महंगी तो बिलकुल भी नहीं है,
दरअसल मैं इंसानों को समझने की कोशिश में आज भी लगा हूँ, शायद इसीलिए मेरी ज्यादातर पोस्ट इंसानों के बारे में ही होती हैं, दीपक भी करोड़ों की भीड़ में एक ऐसा इंसान है, जिसका हमारे बीच होना उतना ही जरूरी है जितना जिन्दा रहने के लिए सांस लेना, दरअसल लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के बेहद चमकते सितारों में एक था दीपक, हमेशा समाज को बेहतर बनाने, जेब में चवन्नी न होने के बावजूद समाज के लिए कुछ करने की तड़प, मरने से पहले कुछ सार्थक करने की उलझन हमेशा मन में चलती रहती थी, लेनिन, मार्क्स, गोर्की और साम्वयाद से नफरत की हद तक नफरत करने के बावजूद दीपक ही था जिसके कहने पर मैंने इनको जानने की कोशिश शुरू की, और शायद साहित्य और संवाद को दीपक के साथ ही गंभीरता से समझ सका था, हम सब जहाँ किस्मत के धनीथे वहीँ अच्छे विचार और अच्छी सोच होने के बावजूद दीपक को एक अदद नौकरी पाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा और बमुश्किल तमाम एक चैंनेलमें नौकरी मिल सकी, हम सबको पता था की दीपक के कद के सामने ये नौकरी बेहद बौनी है लेकिन कर क्या सकते थे, फिर एक दिन अचानक वही हुआ जो हर प्रतिभासाली नौजवान के साथ होता है, किसी की जिद का शिकार दीपक की नौकरी को होना पड़ा, दीपक के लिए सबसे बेहतर चाहने के बावजूद उसके साथ कभी बेहतर तो क्या बुरा भी नहीं हुआ, हमेशा बेहद बुरा होता रहा, अचानक बीमार पिता जिंदगी की जंग हार गए, दीपक की नौकरी चली गयी, और फिर से एक नामी अखबार में शून्य से शुरू करना पड़ा, इन लाख उलझनों, तनावों और दबावों के कभी भी दीपक की खिलखिलाहट में कमी या कमीनगी नहीं देखी, इतना ही नहीं समाज को कुछ बेहतर देकर जाने की जिद वैसे ही बदस्तूर जारी रही, मेरी सुविधाभोगी जिन्दगी पर हमेशा उसी तल्खी के साथ टिप्पड़ी होती रही, मेरे कार्पोरेट ख्यालों पर तंज उसी तीखेपन के साथ छोड़तारहा इसा गरज के साथ की समाज के बेहतर बनाने के जज्बे या संकल्प में कहीं कम ना आ जाए,
मेरे दुसरे आम पात्रों की तरह दीपक भी न कोई मशहूर हस्ती है और न ही कोई स्टार लेकिन मेरे लिए दीपक के होने का मतलब बहुत है, ये जानने के बाद भी की हर मुलाकात के बीच एक लम्बा वक़्त ऐसा भी आएगा जब हम दोनों की बोलचाल तक बंद हो जायेगी कुछ देर के लिए लेकिन फिर भी दीपक ही तो है जो हमको रौशनी देगा, समाज को रौशनी देगा और पत्रकारों का झुण्ड जो एक रेवड़ में तब्दील हो चूका है उसे रौशनी देगा,
बस न भावुक हूँ, न किसी को हीरो बनाने की तम्मन्ना है, न किसी की तारीफों के बेवजह पुल बांधने हैं, बस सिर्फ यही कहना है, की टूट जाने की हद तक टूटने के बावजूद सत्यम, शिवम्, सुन्दरम का संकल्प कितने लोग ले पाते हैं, संगर्ष अच्छे अच्छे आदर्शों को हवा कर देता है, बावजूद इसके अपने उन्ही आदर्शों पर कई बार बेचारगी के साथ ही सही पर खड़े रहने के जज्बे को बार बार सलाम करने को मन करता हैं,
दीपक तुम्हारे लिए इतना ही कहूँगा,
दीपक हो रौशनी देते रहना......
तुम्हारा
हृदयेंद्र
Tuesday, August 4, 2009
इस मन्दिर से मयखाना भला...
आधी रात को जब मैं और वो मासूम पिल्ला जुगलबंदी में जुटे थे, तभी एकाएक अपने बड़े भाई भूपेश चट्ठा के साथ पटियाला के शराबघरों की बेसाख्ता याद आ गई की कैसे वहां शहर भर के शराबी हर किस्म के शिकवे भूलकर एकसाथ बड़े मजे से बड़े खुलूस के साथ जाम लडाते थे और एक दुसरे के लिए जान तक दे देने को तैयार रहते थे..भले ही नशे में.....उस रात मुझे उन दारु के अड्डों की बड़ी याद आई जहाँ कम से कम किसी को भूखा मरने के लिए कोई यूँही नही छोड़ने को तैयार था....एक मन्दिर के अहाते में तिल तिल कर मर रहे एक मजलूम की आवाज घंटों के भीतर दब जाए उस मन्दिर जाकर क्या करना.....उससे कहीं भला वो मयखाना लगा....
वाकई मन्दिर और मस्जिद बैर कराते हों या नही लेकिन आज तक किसी मजलूम की मदद करते मैंने नही देखा इन मंदिरों और मस्जिदों के मठाधीशों को...इसीलिए मुझे आज भी इनसे घिन आती है और मन्दिर में खूबसूरत लडकियां देखने के अलावा आज भी दूसरे किसी मकसद से नही जाता, मुझे लगता है मेरा मकसद सही है और ये मन्दिर मस्जिद और इनमे सर झुकाने वाले आज भी ग़लत...सच क्या है..ये मेरा इश्वर जानता है.....वो कहाँ है..ये मुझे मालूम है....वो या तो किसी मासूम खिलखिलाहट में है..या पूँछ हिलाते किसी चौपाये में या मेरी तरफ़ बड़ी आस लगाकर देखती कुछ आंखों में है....शायद इसीलिए मैं मन्दिर जाने के बजाय बेटू की मुस्कराहट देखने जरूर उसके घर पहुँच जाता हूँ....जाहिर है मेरे भगवान् मन्दिर में जो नही हैं.....
हृदयेंद्र
Saturday, July 4, 2009
क्या आप रैम इमैनुअल को जानते हैं

Tuesday, May 26, 2009
रोला गैरा का जादू एक बार फिर से....
इधर आईपीएल का जूनून ख़त्म हुआ उधर रोला गैरा में फ्रेंच ओपन शुरू हो गया, जब दुनिया क्रिकेट की दीवानी है तब भारत जैसे देश में टेनिस को पसंद करना बहुतों के लिए किसी गुनाह से कम नही होगा, पता नही क्यूँ आज भी टेनिस का मैच अगर कभी भी टीवी पर आ रहा हो तो अपने आप नजरें रुक ही जाती हैं, पता नही टेनिस कैसे और क्यूँ इतना पसंद आने लगा पर ये सच है आज भी बोरिस बेकरकी नशीली आँखें और स्टेफी ग्राफ के मासूम रिटर्न एकबारगी फ्लैश बैक में लेकर चले जाते हैं, याद है की गर्मियों की छुट्टियों में हम सब अपने ननिहाल जाया करते थे, वहीँ हम चव्वनी और अठन्नी ( यानि बच्चे) जो कुल मिलकर मैं और मौसी मामा के बच्चे मिलकर करीब एक क्रिकेट टीम के बराबर हो जाते थे टेनिस के मैच पूरी शिद्दत से मिल जुलकर देखते थे, खास बात ये की हम सब चूँकि सारे काम मिल जुलकर करते थे तो टेनिस के मैच भी मिल जुलकर ही देखा करते थे, कब टेनिस के शाट मारते मारते गब्रिएला सबातीनी पसंदीदा हो गयी पता ही नहीं चला, कई साल दिल पर राज करने के बाद स्टेफी ग्राफ का ग्राफ कुछ यूँ चढा की दुनिया में कोई खेल था तो टेनिस और सपनो में कोई आता था तो स्टेफी, ज्यादातर भारतीय युवाओं की पसंदीदा अक्सर कोई भारतीय या विदेशी फिल्म ऐक्ट्रेस होती है लेकिन अपनी पूरी जवानी और आज भी स्टेफी का जादू कम नहीं हुआ है मेरे दिल-ओ-दिमाग से, आज न बोरिस बेकर हैं, न जिम कुरिअर, न ही आंद्रे अगासी और न अपनी छोटी वाली मोनिका सेलेस, आज रोजेर फेडरर को भले देख लेता हूँ लेकिन टेनिस में जिनको सनसनी कहा जाता था शायद ही कोई हो, लेकिन फिर भी हर साल चारों ग्रैंड स्लैम उसी शिद्दत से होते हैं और टेनिस का महापर्व विम्बलडन भी बिना रुके जारी है, चेहरे भले बदल गए हों लेकिन क्रिकेट को सबकुछ मानने वाले देश में टेनिस भी कईयों के लिए दीवानगी है, यकीन न हो तो मेरे जिगरी दोस्त इन्द्रेश मिश्र के हॉस्टल के कमरे में अन्ना कुर्निकोवा की सौ से भी ज्यादा तस्वीर आपको सब कुछ बयान कर देंगी, भले अन्ना टेनिस में बहुत कुछ न कर पायी हों लेकिन लोगों के दिलों में बहुत कुछ हो गया सिर्फ अन्ना की वजह से, तो रोला गैरा फिर से तैयार है टेनिस में कुछ नए और पुराने सितारों की परीक्षा लेने के लिए और कुछ नए स्टार बनाने के लिए हो सकता है इस साल ही कोई नयी टेनिस सनसनी पैदा हो जाय और किसी को अपना दीवाना बना दे, और शायद मैं मरने से पहले एक बार उस सनसनी को फ्रांस जाकर अपनी आँखों से देख सकूँ खेलते हुए और फ्रेंच ग्राउंड पर समां बांधते हुए,
हृदयेंद्र
Saturday, May 23, 2009
ये है दिल्ली मेरी जान
यहाँ की ब्लू लाइन बसों के बेहूदा और गंवार स्टाफ और ब्रांडेड कपडों में सजे धजे यहाँ के जाहिल बाशिंदों को देखकर हमेशा खून खौल जाता है ( दरअसल दिल्ली के आसपास जाटों और गुर्जरों की जमीन थी, और इनको बेंचकर ये बिरादरी पैसेवाली तो हुयी पर शायद दिल्ली की सभ्यता और संस्कृति को अपनी जंगली और बर्बर संस्कृति से जितना नुक्सान खुद दिल्ली के इन जंगली लोगों ने पहुँचाया है उतना शायद ही किसी बाहरी ने दिल्ली की संस्कृति को पहुँचाया होगा) लेकिन पता नहीं क्यूँ हर बार पीवीआर प्रिया पर मौज करने, सेंट्रल पार्क में कुछ अच्छे चेहरे देखने और स्टेटसमैन हाउस में किताबों के सेल्फ में सर खपाना दुनिया में कुछ भी करने से कहीं ज्यादा अच्छा लगता है, हाँ आज भी फ्रेंड्स कालोनी का कम्युनिटी सेंटर ऐसी जगह लगती है जहाँ बैठे-बैठे ही पूरी जिंदगी बिता सकता हूँ, मुनिरका का कैपिटल कोर्ट ऐसी जगह लगती है जहाँ मौसम कोई भी हो बैठने का मजा ही कुछ और है और जेएनयू का माहौल कभी महसूस ही नहीं होने देते की आप किसी बेहद भीड़ भरे और बेतरतीब शहर में हैं,
शायद यही दिल्ली है मेरे दोस्त, कहीं बहुत बुरी सी, तो कहीं बहुत खूबसूरत, जीके जाने पर हर बार मन यही करता है की बस थोडा और रुक जाया जाये थोडा और, यही वजह है की आज भी साउथ दिल्ली में एक अदद आशियाना बनाने की ख्वाहिश हमेशा मन में जिन्दा है, उम्मीद है मेरी जान दिल्ली अपने रंग बिरंगे रंगों के साथ हर बार मुझे यूँ ही रोक लेगी और मैं कहूँगा की दिल्ली मैं आऊंगा और जरुर आऊंगा लौटकर....एक बार फिर
हृदयेंद्र
Saturday, May 2, 2009
कहानी चिरकुट डॉट कॉम की
तो चिरकुटों की संपूर्ण बिरादरी को प्रणाम के साथ
हृदयेंद्र
२/५/२००९
Thursday, April 23, 2009
कहानी सुबिन दास की...
आज भी गाड़ी लेकर सुबीन दा के पास पहुँचा, पहले से काफ़ी बुजुर्ग हो चुके थे, दुआ सलाम के बाद उस बुजुर्ग ने न केवल मेरी दिक्कत का हल निकाला बल्कि मुझे अपने बेहद पुराने बैग से एक अदद मिठाई का टुकडा दिया , इस तंगदिल शहर में अरसे बाद किसी अजनबी से मिलने पर एक बेहद गरीब आदमी जिसके रहने का ठिकाना भी नही है लेकिन बेहद गुरबत में भी अपने संस्कारों के प्रति इतना संवेदनशील होना और एक खाए- अघाए आदमी को भी मेहमान समझना और मिठाई का टुकडा बेहद प्यार से देना भीतर तक छु गया, पैसे और ज्यादा पैसे कमाने के चक्कर में सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ुद को खुदा माननेवाले इस शहर में अरसे बाद सुबीन दा ने एक सबक दिया , जाती व्यवस्था में सबसे ऊँची पायदान पर होने का अहम् अक्सर जोर मार जाता है लेकिन कभी जिसे हमारे यहाँ पैरों के नीचे रखा जाता था आज उसी इंसान के पाँव पड़ने का मन कर रहा था, कुछ पेशे की मजबूरी और कुछ जमाने की , सुबीन दा के पैर तो नही छु सका लेकिन गद्दी फटने का गम ना जाने कहाँ गायब हो गया था और साल भर बाद एक बेहद साधारण इंसान ने मुझे एक कभी न भूलनेवाला सबक दे दिया था, यकीनन जिंदगी कुछ यूँ ही सबक सिखा जाती है ...खैर उन एक घंटों में सुबीन दा ने करीब तीन कहानियाँ सुनाई और अपने मेहनाते को लेने से साफ़ इनकार कर दिया, बदले में उन्हें अपनी जेब में रखे सारे पैसे दे देना चाहता था लेकिन मालोम था की इन पैसों से उनकी दिक्कतें कभी कम नही होंगी बतौर एक पत्रकार ये वादा जरूर किया की किसी दिक्कत पर सबसे पहले खड़े होनेवालों मैं मैं होऊंगा ....यकीनन मुझे होना ही होगा उनके लिए और अपनी इंसानियत के लिए ....किताब लिखने का इरादा है उसमे बहुत कुछ लिख भी चुका हूँ कभी सुबीन दा के बारे में उसमे लिखूंगा और खूब लिखूंगा आख़िर महानगरों में और कितने सुबीन दा बाकी बचे हैं.....
हृदयेंद्र
२३ तारीख की आधी रात को यूँ ही
Monday, March 9, 2009
होलिया में उडे रे गुलाल
कहीं हजार, कहीं दिल के पार
कहीं महक, कहीं थोड़ा सा प्यार
थोडी जिन्दादिली, थोडी मशक्कत
थोडी जिद , थोडी मनुहार
कुछ आर पार
पता नही क्या
दीखता शीशे सा साफ़
न कोई इश्तिहार
कुछ रंग कुछ मौसम
कुछ दिल कुछ जबान
कुछ मोहब्बत कुछ अफसाना
कुछ कुछ हर कहीं
दिल में, तन में, मन में, हर कहीं
बहार
बौछार
प्यार
दुलार
और फ़िर
हर कहीं झूमती
बस एक अदद बयार
यही तो है
रंगों का त्यौहार...
उमंगो का त्यौहार
अपनी और उसकी कुछ अनकही
एक बार फ़िर से न कहने का त्यौहार
फलक फैलाकर
अपने सीने में समटने का त्यौहार
यही होगा तुम्हारे और मेरे जज्बातों का
कुछ अनकहा सा शायद '' त्यौहार''
'' हृदयेंद्र''
Sunday, February 22, 2009
एक दिन दोस्तों के नाम...
वैसे कई दोस्तों को शिकायत है की उन्हें वक़्त नहीं दे पाता ''काकू'' भी यही कहता है लेकिन मिलने के लिए मिला जाए इसलिए बहुतों से नहीं मिलता , काश की '' काकू'' समेट बहुत से दोस्त इस मजबूरी को समझ पाते, लेकिन अब सोचा है की हर हफ्ते किसी करीबी दोस्त से जरुर मिलूँगा, लिस्ट बहुत लम्बी है और वक़्त बहुत कम है इसलिए मैं भी अभी से जुट जाता हूँ दोस्तों से मिलने की योजना बनाने में और आप भी बना लीजिये अपनी योजना....
इस बीच बहुत याद आती है कभी दिल के बेहद करीब रहे आशुतोष नारायण सिंह ( मौजूदा समय में आई बी एन -७ में किसी महत्वपूर्ण पद पर) , प्रमिला दीक्षित ( आजतक की बेहद उर्जावान रिपोर्टर ), वीरेंदर श्रीवास्तव ( स्टार टीवी में इंजिनियर ), दीपांकर नंदी ( आजतक) और तनसीम हैदर (आजतक) के साथ विनय शौरी ( क्राइम रिपोर्टर दैनिक जागरण, पटियाला) की.... इन सबने यारबाजी की मिसाल कायम की थी कभी अगर दोस्ती का इतिहास लिखा जाता तोः इन सबका नाम मैं जरुर उस किताब में लिखवाने की हर मुमकिन कोशिश करता, किसी के लिए अपना इम्तिहान छोड़ देना( आशुतोष) , एक दोस्त के आयोजन को सफल बनाने के लिए तपते बुखार मेंजी जान लगाकर आयोजन को सफल बनाना( प्रमिला) , गर्मियों में बिजली गुल हो जाने पर कमरे में बंद होकर नंगे होकर नाचना( वीरेंदर), बेहद गुरबत के दिनों में भी जूनियरों को छोटे भाइयों की तरह ट्रीट करना( दीपंकर दादा) , ई टी वी में मेरे हर दुःख दर्द को अपने सर लेना( तनसीम भाई) और एक अजनबी शहर में किसी कमी का महसूस न होने देना(शौरी पाजी) आज भी ठीक वैसे याद है , कुछ खफा हो गए कुछ खो गए कुछ से मिलने का वक़्त नहीं मिलता लेकिन आज भी एक दिन तोः क्या जिंदगी उन्ही दोस्तों के नाम करने का मन करता है, हर बार बार बार .....अगर किसी को आशुतोष, प्रमिला और दीपंकर दादा का नंबर मिले तोः भेजनेकी तकलीफ करें मेरी बहुत शुभकामनायें आपको मिलेंगी, बाकी ''अजनबी शहर है दोस्त मिलाते रहिये, दिल मिले तभी हाथ मिलाते रहिये ''...सभी दोस्तों की बेहतरी और शानदार जिंदगी की दुआ के साथ
''हृदयेंद्र ''
फुहार
- hridayendra
- प्यार करता हूँ सबसे, आपकी कोई भी मदद बिना नफा नुक्सान सोचे कर दूंगा, अपने गुस्से से बहुत डर लगता है, हमेशा कोशिश रहती है की बस ''गुस्सा'' न आये मुझे, लोग मुझे बहुत अच्छे दोस्त, शरीफ इंसान और एक इमानदार दुश्मन के तौर पर याद रखते हैं, एक बार दुश्मनी कीजिये, देखिये कितनी इमानदारी से ये काम भी करता हूँ,