Tuesday, June 8, 2010

इस मौत पर...

इस मौत पर
शांत होना चाहता हूँ
मौन होना चाहता हूँ
चुपचाप रोना चाहता हूँ
बहुत कुछ कहना चाहता हूँ
इस मौत पर टूटना चाहता हूँ
बिखरना चाहता हूँ
कुछ मौन रहकर
कहना चाहता हूँ
इस मौत पर...
सांस बंद
करके मुक्त होना चाहता हूँ
अँधेरे में खो जाना चाहता
हूँ इस मौत पर....
( डाली भाभी के लिए....भावभीनी श्रद्धांजलि )

इस मौत पर...

इस मौत पर
शांत होना चाहता हूँ
मौन होना चाहता हूँ
चुपचाप रोना चाहता हूँ
बहुत कुछ कहना चाहता हूँ
इस मौत पर
टूटना चाहता हूँ
बिखरना चाहता हूँ
कुछ मौन रहकर
कहना चाहता हूँ
इस मौत पर...
सांस बंद करके
मुक्त होना चाहता हूँ
अँधेरे में
खो जाना चाहता हूँ
इस मौत पर....
( डाली भाभी के लिए....भावभीनी श्रद्धांजलि )

डोली गुप्ता नहीं रही...

डोली गुप्ता नहीं रही, भाभी थी, मित्र, बड़े भाई, अच्छे इंसान, ब्रजेन्द्र निर्मल की पत्नी थी, यंत्रणा के लम्बे दौर के बाद हमें छोड़ गयी, उनके हाथ का खाना खाने की जरूर खवाहिश थी, इस खवाहिश के अधूरे रहने का वाकई अफ़सोस रहेगा, ईश्वरउन्हें शांति देना, उनके परिवार को ताकत, तुम्ही रास्ता दिखा सकते हो, मैं परेशां हूँ, मन अशांत है, फिर वही सवाल की हर भले आदमी के साथ ही ऐसा क्यूँ होता है, मेरे बरेली में रहने की वजह थे ब्रजेन्द्र भाई साहब, भंडारी जी, वीरेन दा...अब मन उचाट सा हो गया है, नहीं रुकना चाहता इस शहर, भाभी आप बिसलेरी का पानी पीना चाहती थी, अस्पताल के पानी से परेशानी थी, यकीन जानिये मैंने सोच रखा था अगली बार जरूर लाऊंगा मैं आपके लिए पर वो अगली बार नहीं आया, मुझे दुःख है, बच्चों के लिए, ब्रजेन्द्र भाई साहब के लिए...दुखी हूँ , आपके लिए कुछ कर पाता तो अपराध बोध थोडा कम होता, आज खबर लगायी, ऐसा कभी नहीं सोचा था, आपकी मौत की खबर लगाऊंगा, इंसान हूँ, आपकी मौत पर फूट, फूट कर रोना चाहता हूँ, पर बहुत कुछ ऐसा है जो मुझे ऐसा नहीं करने दे रहा...वाकई मामा की मौत के बाद करीब दस साल बाद आज रोना चाहता हूँ, खूब....आपका परिवार इस संकट से उबरे यही प्रार्थना करना चाहूँगा, आपकी आत्मा को शांति मिले...

आपका
हृदयेंद्र

Friday, January 15, 2010

जवानी के दिन और मोहल्ले का क्रिकेट

क्रिकेट पसंद करने वाले क्रिकेट भी खूब खेले होंगे लेकिन जवानी के दिनोंमें मोहल्ले के पार्क में क्रिकेट खेलने के मजे को शब्दों में शायद ही बाँधा जा सके भले ही गेंद करीने से बल्ले पर न आ रही हो लेकिन बल्ला इस अदा से घुमाना की टंडन जी की वो बेटी जो इस समय जरा अच्छी अच्छी लगती है उसे जरूर अपनी बल्ला घुमाने की स्टाइल दिख जाए, भले ही फील्डिंग करते समय गेंद बार बार हाथ से छूट जाए लेकिन नजरें सक्सेना जी की बालकोनी पर ही टिकी रहती की उनकी इकलौती प्यारी बेटी का पहला या दूसरा प्यार बनने में कोई कमी तो नहीं रह गयी, भले हर गेंद की बल्लेबाज जमकर धुनाई कर रहा हो लेकिन सिद्दीकी अंकल की बेटी नंबर तीन का ध्यान अगर अपने रन अप पर है तो गेंद की धुनाई की फिक्र किस नामाकूल को है। कुल मिलाकर अगर मोहल्ले के पार्क में खेले जा रहे क्रिकेट मैच को पांच लोगों से ज्यादा लोग भले ही न देख रहे हों लेकिन अगर टंडन अंकल की बेटी नंबर एक और सिद्दीकी अंकल की बेटी नंबर तीन जिन पर अपनी नजर कुछ ज्यादा ही संगीन रहती है हमारा मैच देख रही हों तो फिर दर्शक हों या न हो परवाह किसे है, हमारे एक शोट पर उनका मुस्कुराना ही भारी पड़ जाता था, भले ही पूरी टीम बीस रन बनाकर आउट हो जाए लेकिन अगर एक शोट '' उसने '' देख लिया तो हफ़्तों रात में सपनों में वही शोट और उनकी खिलखिलाहट का रिपीट टेलीकास्ट चलता रहता था, एक अजब सा खुमार मोहल्ले के पार्क में खेले गए क्रिकेट मैच का दिलो दिमाग पर रहता था, नजर गेंद पर कम और इस बात पर ज्यादा रहती थी की मोहल्ले की '' वो'' जिनपर '' ये'' ( यानी दिल) फ़िदा थे वो देख रही हैं या नहीं, बल्ला पकड़ने के बाद किसकी नजर गेंद पर रहती थी, नजर तो बस उनपर होती की उनको हमारे बल्ला घुमाने में मजा आ रहा है या नहीं अगर चेहरे पर खिलखिलाहट होती तो माँ कसम बालर बेचारे की धुनाई होनी तय थी और अगर उनको हमारे बल्ला घुमाने में मजा नहीं आ रहा तो अगली ही बाल में आउट होकर ऐसी हरकत करना शुरू करते जिससे उनको कमसे कम मजा तो आये, भले बेवजह फिसल के यूँही गिर जाना या फिर फील्डिंग के दौरान किसी से टकरा जाना जिसे देखकर कमसेकम वो तो हँसे....

कुल मिलाकर अगर मोहल्ला क्रिकेट हमारे लिए विश्वकप से कम नहीं था तो हम भी धोनी से कम कहाँ थे, और इन सब पर अगर वो मैच देख रहे हों तो फिर कहना ही क्या, जवानी की शुरुआत में वो क्रिकेट मैच उन खूबसूरत यादों की तरह होते हैं जिनको भूलना कोई भी नहीं चाहेगा, सालों बाद उन यादों को यादकर एक बार फिर आपने शहर की उन गलियों और चेहरों को याद करने का मौका मिल गया जिन्हें बहुत पहले ही घर छोड़ते वक़्त पीछे छोड़ आया था...शायद मैं ही नहीं शहर में रहनेवाले हर इंसान को मोहल्ले का क्रिकेट मैच याद होगा भले ही उसकी उम्र कितनी भी हो गयी हो, यही है हमारे मोहल्ले का क्रिकेट .....



हृदयेंद्र

Sunday, December 20, 2009

यूँ ही जलते रहना दीपक

दीपक का मतलब होता है दीया..दीया जो रौशनी दे, कितने लोग अपने नाम के मतलब को सार्थक कर पाते हैं, ज्यादातर नहीं, यही जवाब होगा, है न, जब मैं पैदा हुआ तब मेरा नाम रखा गया हृदयेंद्र, हृदयेंद्र मतलब, ह्रदय पर राज करने वाला, आज भी जब हर कुछ अपने ह्रदय का करता हूँ तो लगता है चलो नाम सार्थक हुआ,
अभी दो दिन पहले मित्र दीपक से मिलने गया, देश के सबसे बड़े मीडिया हाउस में कुछ बेहद ख़ास शक्शियतों के बीच चुपचाप सा अकेले में खड़ा दीपक हमेशा की तरह सबसे अलग था, सर पर कम हो चुके बाल, जिनके होने न होने की उसे कभी परवाह भी नहीं थी, वही मासूम सी मुस्कराहट और वही कौतुहल....मेरी ब्रांडेड जैकेट देखकर पूछ बैठना ....महंगी होगी न, जवाब क्या देता, बस यही की तुमसे महंगी नहीं है, तुम्हारे वक़्त से महंगी नहीं है, तुम्हारी आस्थाओं से महंगी नहीं है, तुम्हारे विचारों से महंगी तो बिलकुल भी नहीं है,
दरअसल मैं इंसानों को समझने की कोशिश में आज भी लगा हूँ, शायद इसीलिए मेरी ज्यादातर पोस्ट इंसानों के बारे में ही होती हैं, दीपक भी करोड़ों की भीड़ में एक ऐसा इंसान है, जिसका हमारे बीच होना उतना ही जरूरी है जितना जिन्दा रहने के लिए सांस लेना, दरअसल लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के बेहद चमकते सितारों में एक था दीपक, हमेशा समाज को बेहतर बनाने, जेब में चवन्नी न होने के बावजूद समाज के लिए कुछ करने की तड़प, मरने से पहले कुछ सार्थक करने की उलझन हमेशा मन में चलती रहती थी, लेनिन, मार्क्स, गोर्की और साम्वयाद से नफरत की हद तक नफरत करने के बावजूद दीपक ही था जिसके कहने पर मैंने इनको जानने की कोशिश शुरू की, और शायद साहित्य और संवाद को दीपक के साथ ही गंभीरता से समझ सका था, हम सब जहाँ किस्मत के धनीथे वहीँ अच्छे विचार और अच्छी सोच होने के बावजूद दीपक को एक अदद नौकरी पाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा और बमुश्किल तमाम एक चैंनेलमें नौकरी मिल सकी, हम सबको पता था की दीपक के कद के सामने ये नौकरी बेहद बौनी है लेकिन कर क्या सकते थे, फिर एक दिन अचानक वही हुआ जो हर प्रतिभासाली नौजवान के साथ होता है, किसी की जिद का शिकार दीपक की नौकरी को होना पड़ा, दीपक के लिए सबसे बेहतर चाहने के बावजूद उसके साथ कभी बेहतर तो क्या बुरा भी नहीं हुआ, हमेशा बेहद बुरा होता रहा, अचानक बीमार पिता जिंदगी की जंग हार गए, दीपक की नौकरी चली गयी, और फिर से एक नामी अखबार में शून्य से शुरू करना पड़ा, इन लाख उलझनों, तनावों और दबावों के कभी भी दीपक की खिलखिलाहट में कमी या कमीनगी नहीं देखी, इतना ही नहीं समाज को कुछ बेहतर देकर जाने की जिद वैसे ही बदस्तूर जारी रही, मेरी सुविधाभोगी जिन्दगी पर हमेशा उसी तल्खी के साथ टिप्पड़ी होती रही, मेरे कार्पोरेट ख्यालों पर तंज उसी तीखेपन के साथ छोड़तारहा इसा गरज के साथ की समाज के बेहतर बनाने के जज्बे या संकल्प में कहीं कम ना आ जाए,
मेरे दुसरे आम पात्रों की तरह दीपक भी न कोई मशहूर हस्ती है और न ही कोई स्टार लेकिन मेरे लिए दीपक के होने का मतलब बहुत है, ये जानने के बाद भी की हर मुलाकात के बीच एक लम्बा वक़्त ऐसा भी आएगा जब हम दोनों की बोलचाल तक बंद हो जायेगी कुछ देर के लिए लेकिन फिर भी दीपक ही तो है जो हमको रौशनी देगा, समाज को रौशनी देगा और पत्रकारों का झुण्ड जो एक रेवड़ में तब्दील हो चूका है उसे रौशनी देगा,
बस न भावुक हूँ, न किसी को हीरो बनाने की तम्मन्ना है, न किसी की तारीफों के बेवजह पुल बांधने हैं, बस सिर्फ यही कहना है, की टूट जाने की हद तक टूटने के बावजूद सत्यम, शिवम्, सुन्दरम का संकल्प कितने लोग ले पाते हैं, संगर्ष अच्छे अच्छे आदर्शों को हवा कर देता है, बावजूद इसके अपने उन्ही आदर्शों पर कई बार बेचारगी के साथ ही सही पर खड़े रहने के जज्बे को बार बार सलाम करने को मन करता हैं,
दीपक तुम्हारे लिए इतना ही कहूँगा,
दीपक हो रौशनी देते रहना......
तुम्हारा
हृदयेंद्र

Tuesday, August 4, 2009

इस मन्दिर से मयखाना भला...

कभी हरिवंश रॉय बच्चन जी ने कहा था की मन्दिर मस्जिद बैर कराते मेल कराती मधुशाला....उस वक्त बड़ा बवाल मचा लेकिन कोई बात यूँ ही नही होती....मुटियाए खाए और अघाये लोगों को जब मन्दिर की तरफ़ जाते देखता हूँ तो बड़ी कोफ्त होती है, लाख कुकर्म पर मन्दिर की देहरी का एक बार लाँघ जाना बहुत भरी पड़ता है...यही वजह है मन्दिर मस्जिद कहीं भी बना लीजिये हर शो हाउसफुल जाएगा ही जाएगा...मुद्दे पर आता हूँ...मन मारकर कुछ दिनों से मयूर विहार में रह रहा हूँ, गरीबों दुखियारों और मजलूमों की बस्तियों में जो दिक्कतें होती हैं यमुना पार की लगभग सभी कॉलोनियों में वही दिक्कतें हैं, मसलन लाइट का यूँही घंटो गायब रहना, यातायात की बुरी हालत और हर चीज एकदम बेतरतीब....कहाँ साउथ दिल्ली में मेरी जिंदगी कहाँ यमुना पार की जिंदगी....इससे कोफ्त है इसीलिए यहाँ आने के बाद ही भागने का जुगाड़ लगाने लगा, खैर....कुछ ऐसा ही कल देर रात भी हुआ...लाइट यूँही चली गई और बड़ी देर के लिए गई...किसी मित्र के यहाँ बैठा था सो घर पर जब गर्मी में उबल कर मरना बर्दाश्त से बाहर की बात लगी तो बाहर निकलने में ही भलाई समझी...इसी बीच नए बने मन्दिर के पास पड़ी बेंच पर जैसे ही बैठा था की एक पिल्लै के कराहने की अनवरत आवाज कानों में बरबस ही गूंजने लगी...हर कमजोर की मदद करने का मन हमेशा करता है सो ख़ुद को रोक नही पाया और आधी रात में पिल्ला खोजो कार्यक्रम में जुट गया, पिल्ला दिख भी गया और जब दिखा तो उससे कहीं ज्यादा तकलीफ मुझे हुयी, एक मन्दिर के अहाते में कई दिनों से भूखे प्यासे उस कुत्ते के पिल्लै को न किसी ने खाना दिया था और न पानी, बचपन से जानवरों के बेहद करीब होने के नाते बात समझ में आ गई थी की ये पिल्ला पानी की कमी, भूख और अपनी माँ से अलग होने की पीड़ा झेल रहा था, खास बात ये की मन्दिर के अहाते में ये पिल्ला कई दिनों से यूँही अपने तरीके से मन्दिर आने वाले कथित भक्तों से मदद की आस में गुहार लगा रहा था लेकिन भगवान् के भक्तों को जब इंसान की फिकर नही तो जानवर के प्रति सहानुभूति का नाम कौन लेता...जब घर से उस पिल्लै को पानी और रोटियाँ दी गई तो वो मासूम हमें छोड़ने के लिए तैयार ही नही था, जाहिर हैं जानवर होकर उसने अपनी संवेदनशीलता नही त्यागी लेकिन इंसान होकर कितनी आसानी से हम असंवेदनशील हो गए ये प्रभु के भक्तों ने शायद सोचा भी नही जाहिर है तभी इंसान मुझे हमेशा जानवर से बदतर ही लगता रहा है,
आधी रात को जब मैं और वो मासूम पिल्ला जुगलबंदी में जुटे थे, तभी एकाएक अपने बड़े भाई भूपेश चट्ठा के साथ पटियाला के शराबघरों की बेसाख्ता याद आ गई की कैसे वहां शहर भर के शराबी हर किस्म के शिकवे भूलकर एकसाथ बड़े मजे से बड़े खुलूस के साथ जाम लडाते थे और एक दुसरे के लिए जान तक दे देने को तैयार रहते थे..भले ही नशे में.....उस रात मुझे उन दारु के अड्डों की बड़ी याद आई जहाँ कम से कम किसी को भूखा मरने के लिए कोई यूँही नही छोड़ने को तैयार था....एक मन्दिर के अहाते में तिल तिल कर मर रहे एक मजलूम की आवाज घंटों के भीतर दब जाए उस मन्दिर जाकर क्या करना.....उससे कहीं भला वो मयखाना लगा....
वाकई मन्दिर और मस्जिद बैर कराते हों या नही लेकिन आज तक किसी मजलूम की मदद करते मैंने नही देखा इन मंदिरों और मस्जिदों के मठाधीशों को...इसीलिए मुझे आज भी इनसे घिन आती है और मन्दिर में खूबसूरत लडकियां देखने के अलावा आज भी दूसरे किसी मकसद से नही जाता, मुझे लगता है मेरा मकसद सही है और ये मन्दिर मस्जिद और इनमे सर झुकाने वाले आज भी ग़लत...सच क्या है..ये मेरा इश्वर जानता है.....वो कहाँ है..ये मुझे मालूम है....वो या तो किसी मासूम खिलखिलाहट में है..या पूँछ हिलाते किसी चौपाये में या मेरी तरफ़ बड़ी आस लगाकर देखती कुछ आंखों में है....शायद इसीलिए मैं मन्दिर जाने के बजाय बेटू की मुस्कराहट देखने जरूर उसके घर पहुँच जाता हूँ....जाहिर है मेरे भगवान् मन्दिर में जो नही हैं.....
हृदयेंद्र

Saturday, July 4, 2009

क्या आप रैम इमैनुअल को जानते हैं


बहुत लोग रैम इमैनुअल को नही जानते होंगे, दूसरे कई नौजवान साथियों की तरह पता नही क्यूँ लगता है की दुनिया में सबसे बेस्ट आज भी अमेरिका है, कई चीजों में हमसे मसलन डेमोक्रेसी, नौकरशाही,आर्थिक विकास और इमानदारी से लोगों को प्रतिभा के मुताबिक मौके उपलब्ध कराने के मामले में ( निजी अनुभव के आधार पर),
अमेरिका की कई चमकदार चीजों की तरह उनके राजनेता भी खासे चमकदार और प्रतिभाशाली होते हैं,
दरअसल रैम इमैनुअल का जिक्र यूँही नही किया है मैंने, सालों से लालू यादव जैसे विदूषक, सुरजीत और करात जैसे सत्ता के दलालों और अपच पैदा करने की हद तक अपनी संस्कृति को ढोनेवाले दक्षिण के नेताओं के साथ कांग्रेस के चाटुकार नेताओं की लम्बी फौज ने राजनीति नाम की चीज से ही विरक्ति पैदा कर दी है, जब इस देश के नेताओं को देखता हूँ तो वाकई एक बड़े से शून्य के सिवाय राजनीति में और कुछ नही दीखता, जिनको देश का युवा तुर्क कहा जाता है वो या तो अपने बाप की विरासत ढो रहे हैं या फ़िर बिना कुछ किए धरे हर तरह के मजे लेने के अपने खानदानी हुनर का लुत्फ़ ले रहे हैं, संसद में जब भी कारर्वाई देखता हूँ, उबासियाँ लेते नेता जिनके चेहरे से तेज, फुर्ती, चुस्ती सिरे से गायब है, इनसे कोई अक्ल का अँधा भी उम्मीद नही कर सकता, वही पश्चिम के नेता जहाँ पूरी तरह से मुस्तैद और बहुत कुछ करने को उतावले दीखते हैं, चार साल पहले शायद किसी ने बराक ओबामा का नाम सुना हो लेकिन ओबामा अचानक आए और पूरी दुनिया को अपने विचारों और नीतियों से हिलाकर रख दिया,
तो मुद्दे पर आते हैं साहब रैम इमैनुअल भी ओबामा की ही तरह अमेरिका की राजनीति की सनसनी हैं, इन्हे भी अपने बॉस ओबामा की तरह कुछ साल पहले शायद ही कोई जानता रहा हो लेकिन चुपचाप काम करने और अपनी नीतियों को बेहद कठोरता से लागू कराने वाले रैम अमेरिका की उस नीति की मिसाल हैं जिसमे जोर देकर ''सही व्यक्ति के लिए सही स्थान'' का दावा किया जाता है, १९५९ में शिकागो में जन्मे रैम, जेविश माता-पिता की औलाद हैं, बेहद साधारण परिवार से आने वाले इमैनुअल ने रेस्तरा में काम करने से लेकर पसंदीदा बैले डांस मन लगाकर किया और २००८ में बराक ओबामा के मुख्या रणनीतिकार अक्सेलराद से अपनी दोस्ती के चलते बराक ओबामा की टीम में शामिल हो गए, इनके मशहूरियत के बारे में इतना ही काफ़ी है की अपनी सख्त छवि के चलते ज्यादातर लोग इनको ''रैम्बो'' नाम से जानते हैं, शायद हमारे देश में अरसे से किसी राजनेता नें रैम्बो जैसा बयान दिया हो और उस पर अमल भी किया हो इस बयान को सुनकर ही पश्चिम के राजनीतिक लोगों की समझ का कुछ बहुत अंदाजा लगाया जा सकता है, इन्होने एक बार कहा था की'' Never allow a crisis to go to waste। They are opportunities to do big things ,, उपभोक्ता हितों के लिए संघर्ष करते करते रैम बिल क्लिंटन की चुनावी टीम का हिस्सा बने और उनको सलाह दी की चुनाव के लिए चंदा उगाहने का तरीका बदलिए जनाब जिसका नतीजा रहा की क्लिंटन ने आक्रामक चंदा उगाही अभियान चलाया और लोगों से मिलने और उन तक अपनी नीतिया पहुंचाने के लिए ज्यादा समय दिया और व्हाइट हाउस का सफर तय किया, इस तरह से क्लिंटन के साथ रैम्बो १९९३ से १९९८ तक सीनियर सलाहकार के बतौर काम किया, इतना ही नही अरब इस्रायल शान्ति वार्ता के लिए भी रैम्बो ने काफ़ी काम किया और इस्रायली प्रधानमंत्री इत्जाक रोबिन और फिलिस्तीन नेता यासर अराफात के बीच बातचीत का दौर भी शुरू कराया, एक राजनेता, समाजसेवक, इनवेस्टमेंट बैंकर और रणनीतिकार जैसे हर रंग में रैम पूरी सफलता से रमे , यही वजह रही की बराक ओबामा ने पहले तो उन्हें अपना रणनीतिकार बनाया फ़िर व्हाइट हाउस का चीफ ऑफ़ स्टाफ बनाकर एक सुलझे हुए और दूरदर्शी इस्रायली को साफ़ सुथरा और बेहतर मौका दिया,
अब कुछ और मुद्दे जिन पर हमारे जैसे लोग सोचते हैं
१-क्या भारत में कोई व्यक्ति जो भले किसी देश का नागरिक रहा हो लेकिन उसको आगे बदने के इतने साफ़ और पारदर्शी मौके मिलते हैं
२-क्या हमारे देश में वाकई समाज और राज्य के लिए कुछ करने की हिम्मत रखनेवाले और दूरदर्शी नेताओं को खूसट और खुर्राट नेता आगे बढ़ने देंगे
३-क्या हमारे देख में कोई नेता जनता के हित के लिए रैम्बो जैसी दबंगई के साथ अपनी नीतिया लागू करवा सकता है
४-बड़े बड़े प्रचार और दावों के बावजूद क्या वाकई सभी को अपनी प्रतिभा दिखाने का साफ़ और पारदर्शी मौका देश के हर नौजवान को मिलता है,
दरअसल रैम्बो के बहाने कुछ सवाल थे मन में की क्या वाकई इस देश में राजनीती उस मुकाम पर है जहाँ से कुछ बेहतर की उम्मीद मिल सके, जब विकसित देशों के नेता उनकी नीतियाँ और तरीकों पर गौर करता हूँ तो बस आह के सिवा इस देश की राजनीति से कोई उम्मीद नही मिलती, जहाँ रेल मंत्री हर तरीके से अपने राज्य के लोगों और अपने वोट बैंक को ध्यान में रख काम करता हो, जहाँ प्रतिभा पाटिल को इसलिए प्रेजिडेंट के ओहदे पर बिठाया जाता है क्यूंकि एक पार्टी की मुखिया को उनके जरिये देश पर जबरन अपना एजेंडा थोपने में मदद मिलेगी, जिन राहुल को देश का पालनहार बताया जा रहा है उन्होंने अपनी मर्जी से कितना काम इस देश के लिए किया है इसका जवाब कोई भी दे देगा, जहाँ नेता थोपे जाते हो उस देश का भविष्य उज्जवल है इसे घोर आशावाद के सिवाय और कुछ नही माना जा सकता, दरअसल इस देश को जरुरत है अमेरिका जैसे राजनीतिक सिस्टम की जहाँ काम करने वालों को आगे बढाया जाता है काम करने के लिए शायद तभी रैम इमैनुअल जैसे लोग बराक ओबामा को सलाह देकर हर हालत में सबसे बेहतर की कोशिश में जुटे हैं वो भी राजनीति जैसे क्षेत्र में, क्या भारत में कभी मुमकिन होगा ऐसा कर पाना किसी रैम इमैनुअल के लिए,

फुहार

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प्यार करता हूँ सबसे, आपकी कोई भी मदद बिना नफा नुक्सान सोचे कर दूंगा, अपने गुस्से से बहुत डर लगता है, हमेशा कोशिश रहती है की बस ''गुस्सा'' न आये मुझे, लोग मुझे बहुत अच्छे दोस्त, शरीफ इंसान और एक इमानदार दुश्मन के तौर पर याद रखते हैं, एक बार दुश्मनी कीजिये, देखिये कितनी इमानदारी से ये काम भी करता हूँ,