इन दिनों meri पसंदीदा वेबसाइट पर लोग इस कदर अराजक हो गए हैं की मैं भौचक्का हूँ, लोगों को वेबसाइट के संपादक नीरेंद्र नागर ने सलीके से पेश आने की गुजारिश क्या कर डाली हरकोई गाली गलौज पर उतर आया है, पढ़े लिखों का ये रूप बहुत दुखी करता है, ये पोस्ट उसी मामले पर मेरी प्रतिक्रिया है
( पोस्ट का link
http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/ekla-chalo/न वे वेश्याएं हैं, न सेक्स की भूखी हैं...)
कभी इंडिया टुडे में एक लेख पढ़ा था, दिल्ली के रोड रेजके बारे में था की कैसे एक शांत रहने वाले आदमी ने कुछ सेकंड के उन्माद में आकर एक मासूम की हत्या कर दी...दरअसल नगर जी के इस पोस्ट पर जब लोगों के कमेन्ट पढ़ रहा हूँ तो लगता है पता नहीं कहाँ से उन्मादियों का एक झुण्ड आ गया है जो कुछ समझने के लिए तैयार नहीं है, सबको लगता है अरे सेक्स पर इसने बोला कैसे और हमारे बारे में इसकी बोलने की हिम्मत भी कैसे हुयी, शायद ऐसे ही गुस्से से भरे हुए हैं सब..कोई किसी को झंडू कह रहा है, कोई तेलु, कोई कुछ कोई कुछ,
नगर जी की एक बात जिससे जबरदस्त विरोध मेरा भी है या यूँ कहें की गुस्सा है जिसमे उन्होंने वेश्या शब्द का बड़े अपमानजनक तरीके से इस्तेमाल किया है, दरअसल कबाड़ी बाजार में निकलते हुए आपको एकसाथ इतनी छींकें आएँगी की आपकी हालत ख़राब हो जाएगी, ( वहां दरअसल मसालों की दुकानें हैं जिनकी तीखी गंध नाक बर्दास्त ही नहीं कर पाती) जी बी रोड के सीलन भरे कमरों में घुसते ही अगर इंसानियत नामकी चीज जिन्दा है तो सेक्स तो दूर की बात है उनके साथ अगर कुछ होगा तो सिर्फ सहानुभूति, ( मैं सेक्स karne नहीं बल्कि apni उस किताब par काम करने gaya था जो unki जिंदगियों के baare में hai) नागर जी दुखी हूँ वेश्याओं के दर्द से नावाकिफ होकर उनके बारे में इस कदर लिखने या भाव रखने के लिए, कहते हैं की कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी वरना कोई यूँही बेवफा नहीं होता, यक़ीनन विरोध है लेकिन मैंने अपना विरोध दर्जा करा दिया है बस..बाकि आप समझेंगे,
रही बात खुशबू के सेक्स पर कहे बयान की, तो उसपर हम मर्द क्यूँ हाई तौबा मचा रहे हैं, एक औरत किसके साथ सेक्स करे कब करे ये विवेक असरी, नीरेंद्र नगर या कोई भेजा फ्राई या कोई हृदयेंद्र क्यूँ तय करे या उसपर बिन मांगी सलाह दे, ये खुसबू और आधी आबादी को तय करने दीजिये...
रही बात सचिन नामके सज्जन के कमेन्ट की तो सचिन से सिर्फ इतना ही की दोस्त इस कदर असहिष्णु न तो हम हैं न हमारा इतिहास रहा है, हम असहमत हो सकते हैं, तर्कों के साथ अपनी बात कहने का माद्दा होना चाहिए, गालियाँ, अभद्रता यही सिखाती हैं की हममे सोचने समझने की क्षमता ख़त्म हो गयी है, अगर हम किसी गंभीर मुद्दे पर बोलते, लिखते और बात करते हैं तो फिर बिना दिमाग के बात करने का मतलब क्या है, उम्मीद है सचिन जैसे साथी मेरी बात को समझेंगे, गुस्सा होना चाहिए अगर कुछ गलत लगता है लेकिन सलीकेपसंद और पढ़े लिखे होने के गुमान में जीने वाले हम अगर दूसरों की इज्जत का थोडा सा ख्याल रख लेंगे तो कुछ नहीं जायेगा, न आपको गालियाँ पड़ेंगी न हमें,
एक बार कोई इन कमेन्ट को पढ़ ले यकीन जानिये उन कमेन्ट को लिखने वालों के बारे में आम आदमी की क्या सोच बनेगी ये सोचना भी बड़ा डरावना लगता है, ब्लॉग की आज़ादी का इस कदर मखौल न उड़ाइए दोस्त, कल हमारे-आपके बच्चे भी पढ़ सकते हैं, क्या यही निशानियाँ उनके लिए छोडनी हैं हमें...
( सब गुस्सा हैं, कोई नगर जी से, कोई उनके विचारों से, कोई उनके वेश्या शब्द को अपमानजनक तरीके से पेश करने के, कोई उनके प्रतिक्रिया देने से) गुस्सा रहिये, लेकिन इस बार विरोध क्रिएटिव कीजिये..गाली गलौज के बिना, किसी की माँ बहन को बेइज्जत किये बिना भी बात हो सकती है...उम्मीद है सब समझेंगे...
हृदयेंद्र